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प्रेम-पंचमी

से उतरकर उनसे गले मिले, और उन्हें अपनी दाहनी ओर सिहासन पर बैठाया। फिर दरबार में खड़े होकर उनकी सुकीर्ति और राज्य-भक्ति की प्रशंसा करने के उपरांत अपने ही हाथों से उन्हें खिलअत पहनाई। राजा साहब के कुटुब के प्राणी भी आदर और सम्मान के साथ बिदा किए गए।

अंत को जब दोपहर के समय दरबार बरखास्त होने लगा, तो बादशाह ने राजा साहब से कहा―आपने मुझ पर और मेरी सल्तनत पर जो एहसान किया है, उसका सिला ( पुरस्कार ) देना मेरे इमकान से बाहर है। मेरी आपसे यही इल्तिजा ( अनुरोध ) है कि आप वजारत का क़लमदान अपने हाथ में लीजिए, और सल्तनत का, जिस तरह मुनासिब समझिए, इंतज़ाम कीजिए। मैं आपके किसी काम में दखल न दूँँगा। मुझे एक गाशे में पड़ा रहने दीजिए। नमकहराम रोशन को भी मैं आपके सिपुर्द किए देता हूँ। आप जो सज़ा चाहे, इसे दें। मैं इस कब का जहन्नुम भेज चुका होता, पर यह समझकर कि यह आपका शिकार है, इसे छोड़े हुए हूँ।

लेकिन बख्तावरसिंह बादशाह के उच्छृंंखल स्वभाव से भली भाँति पारचित थे। वह जानते थे, बादशाह को ये सदि- च्छाएँ थोड़े ही दिनो की मेहमान हैं। मानव-चरित्र में आकस्मिक परिवर्तन बहुत कम हुआ करते है। दो-चार महीने में दरबार का फिर वही रंग हो जायगा। इसलिये मेरा तटस्थ रहना ही अच्छा है। राज्य के प्रति मेरा जो कुछ कर्तव्य था, वह मैंने पूरा