शाह को ले जाने के लिये सवारी तैयार खड़ी थी। लगभग २५ सशस्त्र गारे सिपाही भी खड़े थे। बादशाह सेज-गाड़ी को देखकर मचल गए। उनके रुधिर को गति तीव्र हो गई। भोग और विलास के नीचे दबी हुई मर्यादा सजग हो गई। उन्होने ज़ोर से झटका देकर अपना हाथ छुडा लिया, और नैराश्य- पूर्ण दुस्साहस के साथ, परिणाम-भय को त्यागकर, उच्च स्वर से बोले―ऐ लखनऊ के बसनेवालो! तुम्हारा बादशाह यहाँ दुश्मनो के हाथो कत़्ल किया जा रहा है। उसे इनके हाथ से बचाओ, दौड़ो, वर्ना पछताओगे!
यह आर्त-पुकार आकाश की नीरवता को चीरती हुई गोमती को लहरो में विलीन नहीं हुई, बल्कि लखनऊवालों के हृदयों में जा पहुँची। राजा बख्तावरसिंह बंदी-गृह से निकलकर नगर-निवासियो का उत्तेजित करते, और प्रतिक्षण रक्षाकारियों के दल को बढ़ाते बड़े वेग से, दौड़े चले आ रहे थे। एक पल का विलंब भी षड्यन्त्रकारियों के घातक विरोध को सफल कर सकता था। देखते-देखते उनके साथ दो-तीन हज़ार सशस्त्र मनुष्यों का दल हो गया था। यह सामूहिक शक्ति बादशाह और लखनऊ-राज्य का उद्धार कर सकती थी। समय सब कुछ था। बादशाह गोरी सेना के पँजे में फँस गए, तो फिर समस्त लखनऊ भी उन्हें मुक्त न कर सकता था। राजा साहब ज्यों- ज्यो आगे बढ़ते जाते थे, नैराश्य से दिल बैठा जाता था। विफल-मनोरथ होने को शंका से उत्साह भंग हुआ जाता