राजा बख्तावरसिंह नजर-बंद हुए हैं, इन पर किसी की दाब ही नहीं रही। खुले साँड़ की तरह बाजारों में चक्कर लगाया करते हैं। सरकार से तलब मिलने का कुछ ठीक तो है नहीं। बस, नोच-खसोट करके गुज़र करते हैं।―हाँ, तो फिर अगर मरज़ी हो, तो मेरे साथ घर तक चलिए, आपको माल दिखाऊँ।
सौदागर―नहीं भई, इस वक्त़ नहीं; सुबह आऊँगा। देर हो गई है, और मुझे भी यहाँ की हालत देखकर ख़ौफ मालूम होने लगा है।
यह कहकर सौदागर उसी तरफ चला गया, जिधर वे तीनो राजपूत गए थे। थोड़ी देर में और तीन आदमी सराफे में आए। एक तो पंडितों की तरह नीची चपकन पहने हुए था; सिर पर गोल पगिया थी, और कंधे पर जरी के काम का शाल। उसके दोनो साथी ख़िदमतगारों के-से कपड़े पहने हुए थे। तीनो इस तरह इधर-उधर ताक रहे थे, मानो किसी को खोज रहे हों। यों ताकते हुए तीनो आगे चले गए।
ईरानी सौदागर तीव्र नेत्रों से इधर-उधर देखता हुआ एक मील चला गया। वहाँ एक छोटा-सा बाग था। एक पुरानी मस्जिद भी थी। सौदागर वहाँ ठहर गया। एकाएक तीनो राज- पूत मस्जिद से बाहर निकल आए, और बोले―हुजूर तो बहुत देर तक सराफ की दूकान पर बैठे रहे। क्या बातें हुई?
सौदागर ने अभी कुछ जवाब न दिया था कि पीछे से पंडित