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प्रेम-पंचमी

मायकेवालों को कई पत्र लिखे। पर वहाँ व्यंग्य और कटु वाक्यों के सिवा और क्या रक्खा था? अंत को उन्होंने लिखा―“अब उस रत्न को खोज में मैं स्वयं जाता हूँ। या तो लेकर ही आऊँगा, या कही मुँह में कालिख लगाकर डूब मरूँँगा।”

इस पत्र का उत्तर आया―“अच्छी बात है, जाइए, पर यहाँ से होते हुए जाइएगा। यहाँ से भी कोई आपके साथ चला जायगा।”

सुरेशसिंह को इन शब्दों में आशा की झलक दिखाई दी। उसी दिन प्रस्थान कर दिया। किसी को साथ नहीं लिया।

सुसराल में किसी ने उनका प्रेममय स्वागत नहीं किया। सभी के मुँँह फूले हुए थे। ससुरजी ने तो उन्हे पति-धम पर एक लंबा उपदेश दिया।

रात को जब वह भोजन करके लेटे, तो छोटी साली आकर बैठ गई, और मुसकिराकर बोली―“जीजाजी, कोई सुंदरी अपने रूप हीन पुरुष को छोड़ दे, उसका अपमान करे, तो आप उसे क्या कहेगे?”

सुरेश―( गभीर स्वर से ) कुटिला!

साली―और ऐसे पुरुष को, जो अपनी रूप-हीन स्त्री को त्याग दे?

सुरेश―पशु!

साली―ओर जो पुरुष विद्वान् हो?