बुखार चढ़ आया। लंबी यात्रा की थकन और कष्ट तो था ही, बरसों के कठिन श्रम और तप के बाद यह मानसिक संताप और भी दुस्सह हो गया।
सारी रात वह अचेत पड़ा रहा। माँ बैठी पंखा झलती और रोती रही। दूसरे दिन भी वह बेहोश पड़ा रहा। शीतला उसके पास एक क्षण के लिये भी न आई। “इन्होने मुझे कौन सोने के कौर खिला दिए है, जो इनकी धौस सहूँ। यहाँ तो ‘जैसे कंता घर रहे, वैसे रहे विदेस।’ किसी की फूटी कौड़ी नहीं जानती। बहुत ताव दिखाकर तो गए थे। क्या लाद लाए?”
संध्या के समय सुरेश की ख़बर मिली। तुरंत दौड़े हुए आए। आज दो महीने के बाद उन्होने इस घर में कदम रक्खा। विमल ने आँखे खोली, पहचान गया। आँखो से आँसू बहन लगे। सुरेश के मुखारविंद पर दया की ज्योति झलक रही थी। विमल ने उनके बारे में जो अनुचित संदेह किया था, उसके लिये वह अपने को धिक्कार रहा था।
शीतला ने ज्या ही सुना कि सुरेशसिंह आए हैं, तुरंत शीशे के सामने गई, केश छिटका लिए और विषाद की मूर्ति बनी हुई विमल के कमरे में आई। कहाँ तो विमल की आँखें बँद थीं, मूर्च्छित-सा पड़ा था, कहाँ शीतला के आते ही आँखे खुल गईं। अग्निमय नेत्रो से उसकी ओर देखकर बोला―अभी आई है? आज के तीसरे दिन आना। कुँअर साहब से उस दिन फिर भट हो जायगी।