संग्राम में प्रायः विजय-पताका मायकेवालों के ही हाथ रहती है। किसी भाँति घर में नाज आ जाता, तो उसे पीसे कौन! शीतला की माँ कहती, चार दिन के लिये आई हूँ, तो क्या चक्की चलाऊँ? सास कहती, खाने की वेर तो बिल्ली की तरह लपकेंगी, पीसते क्यों जान निकलती है? विवश होकर शीतला को अकेले पीसना पड़ता। भोजन के समय वह महाभारत मचता कि पड़ोसवाले तंग आ जाते! शीतला कभी माँ के पैरों पड़ती, कभी सास के चरण पकड़ती; लेकिन दोनो ही उसे झिड़क देतीं। माँ कहती, तूने यहाँ बुलाकर हमारा पानी उतार लिया। सास कहती, मेरी छाती पर सौत लाकर बैठा दी, अब बातें बनाती है? इस घोर विवाद में शीतला अपना विरह-शोक भूल गई। सारी अमंगल-शंकाएँ इस विरोधाग्नि में शांत हो गईं। बस, अब यही चिंता थी कि इस दशा से छुटकारा कैसे हो? माँँ और सास, दोनो हो का यमराज के सिवा और कही ठिकाना न था; पर यमराज उनका स्वागत करने के लिये बहुत उत्सुक नहीं जान पड़ते थे। सैकडों उपाय सोचती, पर उस पथिक की भाँति, जो दिन-भर चलकर भी अपने द्वार हो पर खड़ा हो, उसकी सोचने की शक्ति निश्चल हो गई थी। चारो तरफ निगाहे दौड़ाती कि कही कोई शरण का स्थान है? पर कही निगाह न जमती।
एक दिन वह इसी नैराश्य की अवस्था में द्वार पर खड़ी थी। मुसीबत में, चित्त की उद्विग्नता में, इंतज़ार में, द्वार से प्रेम-सा हो जाता है। सहसा उसने बाबू सुरेशसिंह को सामने से घोड़े