मंगला―इसलिये कि तुम्हे इनका आना अच्छा नहीं लगता?
“हाँ, इसीलिये!”
“तुम क्या सदा वही करते हो, जो मुझे अच्छा लगे? तुम्हारे यहाँ मित्र आते हैं, हँसी-ठट्ठे की आवाज़ अंदर सुनाई देती है। मैं कभी नहीं कहती कि इन लोगों का आना बंद कर दो। तुम मेरे कामो में दस्तंदाज़ी क्यो करते हो?”
सुरेश ने तेज़ होकर कहा―इसलिये कि मैं घर का स्वामी हूँ।
मंगला―तुम बाहर के स्वामी हो; यहाँ मेरा अधिकार है।
सुरेश―क्यों व्यर्थ की बक-बक करती हो? मुझे चिढ़ाने से क्या मिलेगा?
मंगला जरा देर चुपचाप खड़ी रही। वह पति के मनोगत भावों को मीमांसा कर रही थी। फिर बोली―अच्छी बात है। अब इस घर में मेरा कोई अधिकार नहीं, तो न रहूँगी। अब तक भ्रम से थी। आज तुमने वह भ्रम मिटा दिया। मेरा इस घर पर अधिकार कभी नहीं था। जिस स्त्री का पति के हृदय पर अधिकार नहीं, उसका उसकी संपत्ति पर भी कोई अधिकार नहीं हो सकता।
सुरेश ने लज्जित होकर कहा―बात का बतँगड़ क्यो बनाती हो! मेरा यह मतलब न था। कुछ-का-कुछ समझ गई।
मंगला―मन की बात आदमी के मुँँह से अनायास ही निकल जाती है। फिर सावधान होकर हम अपने भावो को छिपा लेते हैं।