विमल―अपने को अभागिनी समझती हो?
शीतला―हूँ ही, समझना कैसा? नहीं तो क्या दूसरे को देखकर तरसना पड़ता?
विमल―गहने बनवा दूँँ, तो अपने को भाग्यवती समझने लगोगी?
शीतला―( चिढ़कर ) तुम तो इस तरह पूछ रहे हो, जैसे सुनार दरवाज़े पर बैठा है।
विमल―नहीं, सच कहता हूँ, बनवा दूँँगा। हाँ, कुछ दिन सबर करना पड़ेगा।
( २ )
समर्थ पुरुषों को बात लग जाती है, तो वे प्राण ले लेते हैं। सामर्थ्य-हीन पुरुष अपनी ही जान पर खेल जाता है। विमल- सिह ने घर से निकल जाने की ठानी। निश्चय किया, या तो इसे गहनो से ही लाद दूँँगा या वैधव्य-शोक से; या तो आभू- षण ही पहनेगी या सेंदुर को भी तरसेगी।
दिन-भर वह चिंता में डूबा पड़ा रहा। शीतला को उसने प्रेम से संतुष्ट करना चाहा था। आज अनुभव हुआ कि नारी का हृदय प्रेम-पाश से नहीं बँधता, कंचन के पाश ही से बँध सकता है। पहर रात जाते-जाते वह घर से चल खड़ा हुआ। पीछे फिरकर भी न देखा। ज्ञान से जागे हुए विराग में चाहे मोह का संस्कार हो, पर नैराश्य से जागा हुआ विराग अचल होता है। प्रकाश में इधर-उधर की वस्तुओं को देखकर मन