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प्रेम-पंचमी

उनकी आँखें खोल दी थीं। पहले वह घरवालों के बहुत ज़ोर देने पर भी विवाह करने को राज़ी नहीं हुए। लड़की से पूर्व परिचय हुए बिना प्रणय नहीं कर सकते थे। पर योरप से लौटने पर उनके वैवाहिक विचारों में बहुत बड़ा परिवर्तन हो गया। उन्होंने उसी पहले की कन्या से, बिना उसके आचार- विचार जाने हुए, विवाह कर लिया। अब वह विवाह को प्रेम का बंधन नहीं, धर्म का बंधन समझते थे। उसी सौभाग्यवती बधू को देखने के लिये आज शीतला, अपनी सास के साथ, सुरेश के घर गई थी। उसी के आभूषणों की छटा देखकर वह मर्माहत-सी हो गई है। विमल ने व्यथित होकर कहा― तो माता-पिता से कहा होता, सुरेश से ब्याह कर देते। वह तुम्हे गहनों से लाद सकते थे।

शीतला―तो गाली क्यों देते हो?

विमल―गाली नहीं देता, बात कहता हूँ। तुम-जैसी सुंदरी को उन्होंने नाहक मेरे साथ व्याहा।

शीतला―लजाते तो हो नहीं, उलटे और ताने देते हो!

विमल―भाग्य मेरे वश में नहीं है। इतना पढ़ा भी नहीं हूँ कि कोई बड़ी नौकरी करके रुपए कमाऊँ।

शीतला―यह क्यों नहीं कहते कि प्रेम ही नहीं है। प्रेम हो, तो कंचन बरसने लगे।

विमल―तुम्हें गहनों से बहुत प्रेम है?

शीतला―सभी को होता है। मुझे भी है।