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आभूषण
( १ )

आभूषणों की निंदा करना हमारा उद्देश्य नहीं है। हम असहयोग का उत्पीड़न सह सकते हैं; पर ललनाओं के निर्दय, घातक वाक्य-बाणो को नहीं सह सकते। तो भी इतना अवश्य कहेंगे कि इस तृष्णा की पूति के लिये जितना त्याग किया जाता है, उसका सदुपयोग करने से महान् पद प्राप्त हो सकता है।

यद्यपि हमने किसी रूप-हीना महिला की आभूषणों की सजा- वट से रूपवती होते नहीं देखा, तथापि हम यह भी मान लेते हैं कि रूप के लिये आभूषणों की उतनी ही ज़रूरत है, जितनी घर के लिये दीपक की। किंतु शारीरिक शोभा के लिये हम मन को कितना मलिन, चित्त को कितना अशांत और आत्मा को कितना कलुषित बना लेते हैं, इसका हमे कदाचित् ज्ञान ही नहीं होता। इस दीपक को ज्योति मे आँखें धुँँधली हो जाती है। यह चमक- दमक कितनी ईर्षा, कितने द्वेष, कितनी प्रतिस्पर्धा, कितनी दुश्चिता और कितनी दुराशा का कारण है; इसकी केवल कल्पना से ही रोंगटे खड़े हो जाते हैं। इन्हे भूषण नहीं, दूषण कहना अधिक उपयुक्त है। नहीं तो यह कब हो सकता था कि कोई नववधू, पति के घर आने के तीसरे ही दिन, अपने पति से कहती कि “मेरे पिता ने तुम्हारे पल्ले बाँधकर मुझे तो कुएँ में ढकेल दिया!”