संध्या का समय था। आकाश पर लालिमा छाई हुई थी। अस्ताचल की ओर कुछ बादल भी हो आए थे। सूर्यदेव कभी मेघ-पट में छिप जाते थे, कभी बाहर निकल आते थे। इस धूप- छाँह में ईश्वरचंद्र की मूर्ति दूर से कभी प्रभात की भाँति प्रसन्न मुख और कभी संध्या की भाँति मलिन देख पड़ती थी। मानकी उसके निकट गई, पर उसके मुख की ओर न देख सकी। उन आँखों में करुण वेदना थी। मानकी को ऐसा मालूम हुआ, मानो वह मेरी ओर तिरस्कार-पूर्ण भाव से देख रही है। उसकी आँखों से ग्लानि और लज्जा के आँसू बहने लगे। वह मूर्ति के चरणों पर गिर पड़ी, और मुँँह ढाँपकर रोने लगी। मन के भाव द्रवित हो गए।
वह घर आई, ता नौ बज गए थे। कृष्णचंद्र उसे देखकर बोले―अम्मा, आज आप इस वक्त कहाँ गई थी?
मानकी ने हर्ष से कहा―गई थी तुम्हारे बाबूजी की प्रतिमा के दर्शन करने। ऐसा मालूम होता है, वह साक्षात खड़े हैं।
कृष्ण॰―जयपुर से बनकर आई है।
मानकी―पहले तो लोग उनका इतना आदर न करते थे।
कृष्ण॰―उनका सारा जीवन सत्य और न्याय की वका- लत में गुजरा है। ऐसे ही महात्माओं की पूजा होती है।
मानकी―लेकिन उन्होंने वकालत कब की?
कृष्ण॰―हाँ, यह वकालत नहीं की, जो मैं और मेरे हज़ारों