है? न तो रामलीला के ही दिन है, न रथयात्रा के। सहसा उसका दिल ज़ोर से उछल पड़ा। यह ईश्वरचंद्र की मूर्ति थी, जो श्रमजीवियों की ओर से बनवाई गई थी, और लोग उसे बड़े मैदान में स्थापित करने को लिए जाते थे। वही स्वरूप था, वही वस्त्र, वही मुखाकृति, मूर्तिकार ने विलक्षण कौशल दिखाया था! मानकी का हृदय वाँसों उछलने लगा। उस्कंठा हुई कि परदे से निकलकर इस जलूस के सम्मुख पति के चरणो पर गिर पड़ूँ। पत्थर की मूर्ति मानव-शरीर से अधिक श्रद्धास्पद होती है। किंतु कौन मुँह लेकर मूर्ति के सामने जाऊँ? उसकी आत्मा ने कभी उसका इतना तिरस्कार न किया था। मेरी धन-लिप्सा उनके पैरो की बेड़ी न बनती, तो वह न-जाने किस सम्मान- पद पर पहुँचते! मेरे कारण उन्हें कितना क्षोभ हुआ!! घर- वालों की सहानुभूति बाहरवालों के सम्मान से कही उत्साह- जनक होती है। मैं इन्हें क्या कुछ न बना सकती थी, पर कभी उभरने न दिया। स्वामीजी, मुझे क्षमा करो, मैं तुम्हारी अप- राधिनी हूँ, मैंने तुम्हारे पवित्र भावो की हत्या की है, मैंने तुम्हारी आत्मा को दुखी किया है। मैने बाज को पिजड़े में बंद करके रक्खा था। शोक!
सारे दिन मानकी को यही पश्चात्ताप होता रहा। शाम को उससे न रहा गया। वह अपनी कहारिन को लेकर पैदल उस देवता के दर्शन को चली, जिसकी आत्मा को उसने दुःख पहुँचाया था।