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प्रेम-पंचमी

मानकी के हृदय में ज्यों-ज्यों ये भावनाएँ जाग्रत होती जाती थीं, उसकी पति के प्रति श्रद्धा बढ़ती जाती थी। वह गौरवशीला स्त्री थी। इस कीर्तिगान और जनसम्मान से उसका मस्तक ऊँचा हो जाता था। इसके उपरांत अब उसकी आर्थिक दशा पहले की-सी चिंताजनक न थी। कृष्णचंद्र के असाधारण अध्यवसाय और बुद्धि-बल ने उनकी वकालत को चमका दी थी। वह जातीय कामों में अवश्य भाग लेते थे, पत्रों में यथाशक्ति लेख भी लिखते थे, इस काम से उन्हें विशेष प्रेम था। लेकिन मानको उन्हें हमेशा इन कामो से दूर रखने की चेष्टा करती रहती थी। कृष्णचंद्र अपने अपर जब्ऱ करते थे। माँ का दिल दुखाना उन्हें मज़ूर न था।

ईश्वरचंद्र की पहली बरसी थी। शाम को ब्रह्मभोज हुआ। आधी रात तक ग़रीबों को खाना दिया गया। प्रातःकाल मानकी अपनी सेजगाड़ी पर बैठकर गंगा नहाने गई। यह उसकी चिर- संचित अभिलाषा थी, जो अब पुत्र की मातृभक्ति ने पूरी कर दी थी। यह उधर से लौट रही थी कि उसके कानो से बेंड की आवाज़ आई, और एक क्षण के बाद एक जलूस सामने आता हुआ दिखाई दिया। पहले कोतल घोड़ों की माला थी, उसके बाद अश्वारोही स्वयं सेवको की सेना। उसके पीछे सैकड़ों सवारी गाड़ियाँ थी। सबके पीछे एक सजे हुए रथ पर किसी देवता की मूर्ति थी। कितने ही आदमी इस विमान को खींच रहे थे। मानकी सोचने लगी―‘यह किस देवता का विमान