मौजूद है, जो पत्रो की बदौलत धन और कीर्ति से मालामाल हो रहे हैं।
मानकी―इम काम में तो अगर कंचन भी वरसे, तो मैं कृष्ण को न आने दूँ। सारा जीवन वैराग्य मे कट गया। अब कुछ दिन भोग भी करना चाहती हूँ।
यह जाति का सच्चा सेवक अंत को जातीय कष्टों के साथ रोग के कष्टों को न सह सका। इस वार्तालाप के बाद मुश्किल से ९ महीने गुज़रे थे कि ईश्वरचंद्र ने संसार से प्रस्थान किया। उनका सारा जीवन सत्य के पोषण, न्याय की रक्षा और अन्याय के विरोध में कटा था। अपने सिद्धांतों के पालन में उन्हें कितनी ही बार अधिकारियों की तीव्र दृष्टि का भोजन बनना पड़ा था, कितनी ही बार जनता का अविश्वास, यहाँ तक कि मित्रों की अवहेलना भी सहनी पड़ी थी, पर उन्होंने अपनी आत्मा का कभी खून नहीं किया। आत्मा के गौरव के सामने धन को कुछ न समझा।
इस शोक-समाचार के फैलते ही सारे शहर में कुहराम मच गया। बाज़ार बंद हो गए, शोक के जलसे होने लगे, पत्रों ने प्रतिद्वंद्विता का भाव त्याग दिया, चारो ओर से एक ध्वनि आती थी कि देश से एक स्वतंत्र, सत्यवादी और विचार- शील संपादक तथा एक निर्भीक, त्यागी देशभक्त उठ गया, और उसका स्थान चिरकाल तक ख़ालो रहेगा। ईश्वरचंद्र इतने बहुजन-प्रिय है, इसका उनके घरवालो को ध्यान भी न था।