लेकिन इस संघर्ष और संग्राम के काल में उदासीनता का निबाह कहाँ! “गोरव” क कई प्रतियोगी खड़े हो गए, जिनके नवीन उत्साह ने “गौरव” से बाज़ी मार ली। उसका बाजार ठंढा होने लगा। नए प्रतियोगियों का जनता ने बड़े हर्ष से स्वागत किया। उनकी उन्नति होने लगी। यद्यपि उनके सिद्धात भी वही, लेखक भी वही, विषय भी वही थे, लेकिन आगंतुको ने उन्ही पुरानी बातों में नई जान डाल दी। उनका उत्साह देख ईश्वरचंद्र को भी जोश आया कि एक बार फिर अपनी रुकी हुई गाड़ी में ज़ोर लगाऊँ; लेकिन न अपने में सामर्थ्य थी, न कोई हाथ बँटाने- वाला नजर आता था। इधर-उधर निराश नेत्रों से देखकर हतात्साह हो जाते थे। हाँ! मैने अपना सारा जोवन सार्व- जनिक कार्यो में व्यतीत किया, खत बाया, सीचा, दिन को दिन और रात को रात न समझा, धूप में जला, पानी में भींगा, और इतने परिश्रम के बाद जब फसल काटने के दिन आए, तो मुझमे हँसिया पकड़ने का भी बूता नहीं। दूसरे लोग, जिनका उस समय कही पता न था, नाज काट-काटकर खलिहान भरे लेते हैं, और मैं खड़ा मुँह ताकता हूँ। उन्हें पूरा विश्वास था कि अगर कोई उत्साहशील युवक मेरा शरीक हो जाता, तो “गौरव” अब भी अपने प्रतिद्वंद्वियों को परास्त कर सकता। सभ्य-समाज में उनकी धाक जमी हुई थी, परिस्थिति उनके अनुकूल थी। ज़रूरत केवल ताज़े खून की थी। उन्हें अपने बड़े लड़के से ज्यादा उपयुक्त इस काम के लिये और कोई न दीखता था। उसकी
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प्रेम-पंचमी