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मृत्यु के पीछे

अनुभव हुआ कि यात्रा उतनी सुखद नहीं है, जितनी समझ थी। लेखो के संशोधन, परिवर्द्धन और परिवर्तन, लेखक- गण से पत्र-व्यवहार, चित्ताकर्षक विषयो की खोज, और सहयोगियों से आगे बढ़ जाने की चिंता में उन्हे कानून का अध्ययन करने का अवकाश ही न मिलता था। सुबह को किताबे खोलकर बैठते कि १०० पृष्ठ समाप्त किए बिना कदापि न उठूँगा, किंतु ज्यो ही डाक का पुलिदा आ जाता, वह अधीर होकर उस पर टूट पड़ते, किताब खुली-की खुली रह जाती थी। वारंवार संकल्प करते कि अब नियमित रूप से पुस्तका- बलोकन करूँगा, और एक निर्दिष्ट समय से अधिक संपादन- कार्य में न लगाऊँगा। लेकिन पत्रिकाओ का बंडल सामने आते ही दिल काबू के बाहर हो जाता। पत्रो की नोक-झोंक, पत्रिकाओं के तर्क-वितर्क, आलोचना-प्रत्यालोचना, कवियों के काव्य चमत्कार, लेखको का रचना-कौशल इत्यादि सभी बातें उन पर जादू का काम करती। इस पर छपाई की कठिनाइयाँ, ग्राहक-संख्या बढ़ाने की चिंता और पत्रिका की सर्वांगसुदर बनाने की आकांक्षा और भी प्राण को संकट में डाले रहती थी। कभी-कभी उन्हें खेद होता कि व्यर्थ ही इस झमेले में पड़ा। यहाँ तक कि परीक्षा के दिन सिर पर आ गए, और वह इसके लिये बिलकुल तैयार न थे। उसमे सम्मिलित न हुए। मन को समझाया कि अभी इस काम का श्रीगणेश है, इसी कारण ये सब बाधाएँ उपस्थित होती है। अगले वर्ष यह