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प्रेम-पंचमी

तो उछल पड़े। धन्य भाग्य कि मैं इस सम्मान-पद के योग्य समझा गया! इसमे संदेह नही कि वह इस दायित्व के गुरुत्व से भली भाँति परिचित थे, लेकिन कीर्ति-लाभ के प्रेम ने उन्हें बाधक परिस्थितियों का सामना करने पर उद्यत कर दिया। वह इस व्यवसाय मे स्वातंत्र्य, आत्मगौरव, अनु- शीलन और दायित्व की मात्रा को बढ़ाना चाहते थे। भारतीय पत्रों को पश्चिम के आदर्श पर लाने के इच्छुक थे। इन इरादो को पूरा करने का सुअवसर हाथ आया। वे प्रेमोल्लास से उत्तेजित होकर नदी में कूद पड़े।

( २ )

ईश्वरचंद्र की पत्नी एक ऊँचे और धनाढ्य कुल की लड़की थी, और ऐसे कुलो की मर्यादप्रियता तथा मिथ्या गौरव-प्रेम से संपन्न थी। यह समाचार पाकर डरी कि पति महाशय कहीं इस झंझट में फंसकर कानून से मुँह न मोड़ ले। लेकिन जब बाबू साहब ने आश्वासन दिया कि यह कार्य उनके कानून के अभ्यास मे बाधक न होगा, तो कुछ न बोलो।

लेकिन ईश्वरचंद्र को बहुत जल्द मालूम हो गया कि पत्र- संपादन एक बहुत हो ईर्पा-युक्त कार्य है, जो चित्त की समग्र वृत्तियों का अपहरण कर लेता है। उन्होंने इसे मनोरंजन का एक साधन और ख्याति-लाभ का एक यंत्र समझा था। इसके द्वारा जाति की कुछ सेवा करना चाहते थे। इससे द्रव्योपार्जन का विचार तक न किया था। लेकिन नौका मे बैठकर उन्हें