एक ही दिन पीछे तीसरा पत्र पहुँँचा। उसका भी वही अंत हुआ। फिर तो यह एक नित्य का कर्म हो गया। पत्र आता और फाड़ दिया जाता। किंतु देवप्रिया का अभिप्राय बिना पढ़े ही पूरा हो जाता था―सत्यप्रकाश के मर्मस्थान पर एक चोट ओर पड़ जाती थी।
एक महीने की भीषण हार्दिक वेदना के बाद सत्यप्रकाश को जीवन से घृणा हो गई। उसने दूकान बंद कर दो, बाहर आना- जाना छोड़ दिया। सारे दिन खाट पर पड़ा रहता। वे दिन याद आते, जब माता पुचकारकर गोद में बिठा लेती, और कहती― बेटा! पिता संध्या-समय दफ्तर से आकर गोद में उठा लेते, और कहते―भैया! माता का सजीव मूर्ति उसके सामने आ खड़ी होती, ठीक वैसी ही जब वह गंगा-स्नान करने गई थी। उसकी प्यार-भरी बातें कानो में गूँँजने लगती। फिर वह दृश्य सामने आता, जब उसने नववधू माता को 'अम्मा' कहकर पुकारा था। तब उसके कठोर शब्द याद आ जाते, उसके क्रोध से भरे हुए विकराल नेत्र आँखो के सामने आ जाते। उसे अपना सिसक-सिसककर रोना याद आ जाता। फिर सौरगृह का दृश्य सामने आता। उसने कितने प्रेम से बच्चे को गोद में लेना चाहा था! तब माता के वज्र के-से शब्द कानो में गूँँजने लगते। हाय! उसी वजू ने मेरा सवनाश कर दिया! ऐसी कितनी ही घटनाएँ याद आतीं। कभी विना किसो अपराध के माँँ को डाट बताना, और कभी पिता का निर्दय, निष्ठुर व्यवहार याद आने