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गृह-दाह

कत्ते जैसे शहर में एक छोटे-से दूकानदार का जीवन बहुत सुखी नहीं होता। ६०)-७०) की मासिक आमदनी होती ही क्या है? अब तक वह जो कुछ बचाता था, वह वास्तव में बचत न थी, बल्कि त्याग था। एक वक्त़ रूखा-सूखा खाकर, एक तंग आर्द्र कोठरी में रहकर २५)-३०) बच रहते थे। अब दोनो वक्त़ भोजन मिलने लगा। कपड़े भी ज़रा साफ पहनने लगा। मगर थोड़े ही दिनों में उसके खर्च में औषधियों की एक मद बढ़ गई। फिर वही पहले की सी दशा हो गई। बरसो तक शुद्ध वायु, प्रकाश आर पुष्टिकर भोजन से वंचित रहकर अच्छे-से-अच्छा स्वास्थ्य भी नष्ट हो सकता है। सत्यप्रकाश को अरुचि, मंदाग्नि आदि रोगो ने आ घरा। कभी-कभी ज्वर भी आ जाता। युवावस्था में आत्मविश्वास होता है। किसा अवलंब की परवा नहीं होती। वयोवृद्धि दूसरो का मुँह ताकती है, कोई आश्रय ढूढ़ती है। सत्यप्रकाश पहले सोता, तो एक ही करवट में सवेरा हो जाता। कभी बाज़ार से पूरियाँ लेकर खा लेता, कभी मिठाई पर टाल देता। पर अब रात को अच्छी तरह नींद न आती, बाजारू भोजन से घृणा होती, रात को घर आता, तो थककर चूर-चूर हो जाता। उस वक्त़ चूल्हा जलाना, भोजन पकाना बहुत अखरता। कभी-कभी वह अपने अकेलेपन पर रोतो। रात को जब किसी तरह नींद न आती, तो उसका मन किसी से बाते करने को लालायित होने लगता। पर वहाँ निशांधकार के सिवा और कौन था? दीवालों के कान चाहे हो, मुँह नहीं