सत्य॰―मेरे नसीब खोटे हैं, और क्या।
ज्ञान॰―तुम लिखने-पढ़ने में जी नहीं लगाते?
सत्य॰―लगता ही नहीं, कैसे लगाऊँ? जब कोई परवा नहीं करता, तो मैं भी सोचता हूँ―उँह, यही न होगा, ठोकर खाऊँगा। बला से!
ज्ञान॰―मुझे भूल तो न जाओगे? मैं तुम्हारे पास ख़त लिखा करूँगा। मुझे भी एक बार अपने यहाँ बुलाना।
सत्य॰―तुम्हारे स्कूल के पते से चिट्ठी लिखूँँगा।
ज्ञान॰―( रोते-रोते ) मुझे न-जाने क्यों तुम्हारी बड़ी मुहब्बत लगती है।
सत्य॰―मैं तुम्हे सदैव याद रक्खूँँगा।
यह कहकर उसने फिर भाई को गले से लगाया, और घर से निकल पड़ा। पास एक कौड़ी भी न थी, और वह कलकत्ते जा रहा था।
( ६ )
सत्यप्रकाश कलकत्ते क्योंकर पहुँँचा, इसका वृत्तांत लिखना व्यर्थ है। युवकों में दुस्साहस को मात्रा अधिक होती है। वे हवा में क़िले बना सकते है―धरती पर नाव चला सकते हैं। कठिनाइयों की उन्हें कुछ परवा नहीं होती। अपने ऊपर असीम विश्वास होता है। कलकत्ते पहुँँचना ऐसा कष्ट-साध्य न था। सत्यप्रकाश चतुर युवक था। पहले ही उसने निश्चय कर लिया था कि कलकत्ते में क्या करूँगा, कहाँ रहूँगा। उसके बैग में