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गृह-दाह

उसकी उम्र अब १६ साल की हो गई थी। इतनी बाते सुनने के बाद उसे उस घर में रहना असह्य हो गया था। जब तक हाथ- पाँँव न थे, किशोरावस्था की असमर्थता थी, तब तक अवहेलना, निरादर, निठुरता, भर्त्सना सब कुछ सहकर घर में रहता रहा। अब हाथ-पाँव हो गए थे, उस बंधन में क्यों रहता! आत्मा- भिमान, आशा की भाँति, चिरजीवी होता है।

गर्मी के दिन थे। दोपहर का समय। घर के सब प्राणी सो रहे थे। सत्यप्रकाश ने अपनी धोती बग़ल में दबाई, एक छोटा- सा बैग हाथ में लिया और चाहता था कि चुपके से बैठक से निकल जाय कि ज्ञानू आ गया, और उसे जाने को तैयार देखकर बोला―कहाँ जाते हो, भैया?

सत्य॰―जाता हूँ, कही नौकरी करूँगा।

ज्ञान॰―मैं जाकर अम्मा से कहे देता हूँ।

सत्य॰―तो फिर मैं तुमसे भी छिपाकर चला जाऊँगा।

ज्ञान॰―क्यों चले जाओगे? तुम्हें मेरी ज़रा भी मुहब्बत नहीं?

सत्यप्रकाश ने भाई को गले लगाकर कहा―तुम्हे छोड़कर जाने को जी तो नहीं चाहता, लेकिन जहाँ कोई पूछनेवाला नहीं है, वहाँ पड़े रहना बेहयाई है। कही दस-पाँच की नौकरी कर लूँगा, और पेट पालता रहूँगा; और किस लायक हूँ?

ज्ञान॰―तुमसे अम्मा क्यो इतना चिढ़ती हैं? मुझे तुमसे मिलने को मना किया करती हैं।