निकलो, नहीं तो सरदी हो जायगी। निर्मला ने कहा―कहो, तो मैं छाती तक पानी में चली जाऊँ?
देवप्रकाश―और, जो कही पैर फिसल जाय!
निर्मला―पैर क्या फिसलेगा!
यह कहकर वह छाती तक पानी में चली गई। पति ने कहा―अच्छा, अब आगे पैर न रखना। किंतु निर्मला के सिर पर मौत खेल रही थी। यह जल-क्रीड़ा नहीं―मृत्यु-क्रीड़ा थी। उसने एक पग और आगे बढ़ाया और फिसल गई। मुँँह से एक चीख़ निकली; दोनो हाथ सहारे के लिये ऊपर उठे और फिर जल-मग्न हो गए। एक पल में प्यासी नदी उसे पी गई। देवप्रकाश खड़े तौलिए से देह पोछ रहे थे। तुरंत पानी में कूदे, साथ का कहार भी कूदा। दो मल्लाह भी कूद पड़े। सब ने डुबकियाँ मारी, टटोला; पर निर्मला का पता न चला। तब डोंगी मँगवाई गई। मल्लाहो ने बार-बार ग़ोते मारे; पर लाश हाथ न आई। देवप्रकाश शोक में डूबे हुए घर आए। सत्यप्रकाश किसी उपहार की आशा में दौड़ा। पिता ने गोद में उठा लिया, और बड़े यत्न करने पर भी अपनी सिसकी न रोक सके। सत्यप्रकाश ने पूछा―अम्मा कहाँ हैं?
देव॰―बेटा, गंगा ने उन्हें नेवता खाने के लिये रोक लिया।
सत्यप्रकाश ने उनके मुख की ओर जिज्ञासा-भाव से देखा और आशय समझ गया। ‘अम्मा, अम्मा’ कहकर रोने लगा।