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सत्याग्रह


खोंचेवाला—कहिये, क्या दूँ? भूख लग आई न? अन्न-जल छोड़ना साधुओं का काम है, हमारा-आपका काम नहीं है।

पंडित—अबे क्या बकता है? यहाँ किसी साधू से कम हैं? चाहें, तो महीनों पड़े रहें, और भूख-प्यास न लगे। तुझे तो केवल इसलिए बुलाया है, ज़रा अपनी कुप्पी मुझे दे! देखूँ तो, वहाँ क्या रेंग रहा है। मुझे भय होता है, कहीं साँप न हो।

खोंचेवाले ने कुप्पी उतार कर दे दी। पंडितजी उसे लेकर इधर-उधर ज़मीन पर कुछ खोजने लगे। इतने में कुप्पी उनके हाथ से छूटकर गिर पड़ी, और बुझ गई। सारा तेल बह गया। पंडितजी ने उसमें एक ठोकर और लगाई, कि बचा-खुचा तेल भी बह जाय।

खोंचेवाला—(कुप्पी को हिलाकर) महाराज, इसमें तो ज़रा भी तेल नहीं बचा। अब तक चार पैसे का सौदा बेचता, आपने यह खटराग बढ़ा दिया।

पंडित—भैया, हाथ ही तो है, छूट गिरी, तो अब क्या हाथ काट डालूँ? यह लो पैसे, जाकर कहीं से तेल भरा लाओ।

खोंचेवाला—(पैसे लेकर) तो अब तेल भराकर मैं यहाँ थोड़े ही आऊँगा।

पंडित—खोंचा रखे जाओ, लपककर थोड़ा तेल ले लो; नहीं मुझे कोई साँप काट लेगा, तो तुम्हीं पर हत्या पड़ेगी। कोई जानवर है ज़रूर। देखो, वह रेंगता है। ग़ायब हो गया। दौड़ जाओ पट्ठे, तेल लेते आओ, मैं तुम्हारा खोंचा देखता रहूँगा। डरते हो, तो अपने रुपए पैसे लेते जाओ।

खोंचेवाला बड़े धर्म-संकट में पड़ा। खोंचे से पैसे निकालता है, तो भय है, कि पंडितजी अपने दिल में बुरा मानें, कि मुझे बेईमान समझ रहा है। छोड़कर जाता है, तो कौन जाने, इनकी नीयत क्या हो। किसी की नीयत सदा ठीक नहीं रहती। अन्त को उसने यही निश्चय किया कि खोंचा यहीं छोड़ दूँ, जो कुछ तक़दीर में होगा, वह होगा। वह उधर बाज़ार की तरफ चला, इधर पंडितजी ने खोंचे पर निगाह दौड़ाई, तो