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प्रेम-द्वादशी

डेपुटेशन जब निराश होकर लौटने लगा, तो पंडितजी ने कहा—किसी के पास सुँघनी तो नहीं है? एक महाशय ने डिबिया निकालकर दे दी।

(४)

लोगों के जाने के बाद मोटेराम ने पुलीसवालों से पूछा—तुम यहाँ क्यों खड़े हो?

सिपाहियों ने कहा—साहब का हुक्म है, क्या करें?

मोटे॰—यहाँ से चले जाओ।

सिपाही—आपके कहने से चले जायँ? कल नौकरी छूट जायगी, तो आप खाने को देंगे?

मोटे॰—हम कहते हैं, चले जाओ, नहीं तो हम ही यहाँ से चले जायँगे। हम कोई कैदी नहीं है, जो तुम घेरे खड़े हो।

सिपाही—चले क्या जाइयेगा, मजाल है।

मोटे॰—मजाल क्यों नहीं है बे! कोई जुर्म किया है?

सिपाही—अच्छा जाओ तो, देखें!

पंडितजी ब्रह्म-तेज में आकर उठे, और एक सिपाही को इतनी ज़ोर से धक्का दिया, कि वह कई क़दम पर जा गिरा। दूसरे सिपाहियों की हिम्मत छुट गई। पंडितजी को उन सबने थलथल समझ लिया था, उनका पराक्रम देखा, तो चुपके से सटक गये।

मोटेराम—अब लगे इधर-उधर नजरें दौड़ाने, कि कोई खोंचेवाला नज़र आ जाय, तो उससे कुछ लें; किन्तु तुरंत ध्यान आ गया, कहीं उसने किसी से कह दिया, तो लोग तालियाँ बजाने लगेंगे। नहीं, ऐसी चतुराई से काम करना चाहिये, कि किसी को कानोकान ख़बर न हो। ऐसे ही संकटों में तो बुद्धि-बल का परिचय मिलता है। एक क्षण में उन्होंने इस कठिन प्रश्न को हल कर लिया।

दैवयोग से उसी समय एक खोंचेवाला आता दिखाई दिया। ग्यारह बज चुके थे, चारों तरफ़ सन्नाटा छा गया था। पंडितजी ने बुलाया—खोंचेवाले, ओ खोंचेवाले!