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प्रेम-द्वादशी

प्रचार का चन्दा था। भूपसिंह उनके स्वभाव पर रीझ गये और धूमधाम से श्रीकंठसिंह का आनन्दी के साथ ब्याह हो गया।

आनन्दी अपने नये घर में आई, तो यहाँ का रंग-ढंग कुछ और ही देखा। जिस टीम-टाम की उसे बचपन से ही आदत पड़ी हुई थी, वह यहाँ नाम-मात्र को भी न थी। हाथी, घोड़ों का तो कहना ही क्या, कोई सजी हुई सुन्दर बहेली तक न थी। रेशमी-स्लीपर साथ लाई थी; पर यहाँ बाग़ कहाँ! मकान में खिड़कियाँ तक न थीं, न जमीन पर फ़र्श, न दीवार पर तस्वीरें। यह एक सीधा-सादा देहाती गृहस्थ का मकान था; किन्तु आनन्दी ने थोड़े ही दिनों में अपने को इस नई अवस्था के ऐसा अनुकूल बना लिया, मानो उसने विलास के सामान कभी देखे ही न थे।

(२)

एक दिन दोपहर के समय लालबिहारी सिंह दो चिड़ियाँ लिये हुए आया और भावज से बोला—जल्दी से पका दो, मुझे भूख लगी है। आनन्दी भोजन बनाकर इसकी राह देख रही थी। अब यह नया व्यञ्जन बनाने बैठी। हाँड़ी में देखा, तो घी पाव-भर से अधिक न था। बड़े घर की बेटी, किफ़ायत क्या जाने। उसने सब घी मांस में डाल दिया। लाल बिहारी खाने बैठा, तो दाल में घी न था, बोला—दाल में घी क्यों नहीं छोड़ा?

आनन्दी ने कहा—घी सब मांस में पड़ गया। लाल बिहारी ज़ोर से बोला—अभी परसों घी आया है, इतना जल्द उठ गया!

आनन्दी ने उत्तर दिया—आज तो कुल पाव-भर रहा होगा। वह सब मैंने मांस में डाल दिया।

जिस तरह सूखी लकड़ी जल्दी से जल उठती है, उसी तरह क्षुधा से बावला मनुष्य ज़रा-ज़रा-सी बात पर तिनक जाता है। लाल बिहारी को भावज की यह ढिठाई बहुत बुरी मालूम हुई, तनककर बोला—मैके में तो चाहे घी की नदी बहती हो!

स्त्री गालियाँ सह लेती हैं मार भी सह लेती हैं; पर मैके की निन्दा