बनकर आये थे, भामा बहुत प्रसन्न हुई थी। आज उन्हें बेचकर वह उससे भी अधिक प्रसन्न है।
जब ब्रजनाथ ने आठों गिन्नियाँ उसे दिखाई थीं, उसके हृदय में एक गुदगुदी-सी हुई थी, लेकिन यह हर्ष मुख पर आने का साहस न कर सका था। आज उन गिन्नियों को हाथ से जाते समय उसका हार्दिक आनन्द आँखों में चमक रहा है, ओठों पर नाच रहा है, कपोलों को रँग रहा है और अंगों पर किलोल कर रहा है। वह इन्द्रियों का आनन्द था, यह आत्मा का आनन्द है; वह आनन्द लज्जा के भीतर छिपा हुआ था, यह आनन्द गर्व से बाहर निकला पड़ता है।
तुलसी का आशीर्वाद सफल हुआ। आज पूरे तीन सप्ताह के बाद व्रजनाथ तकिये के सहारे बैठे थे। वह बार-बार भामा को प्रेम-पूर्ण नेत्रों से देखते थे। वह आज उन्हें देवी मालूम होती थी। अब तक उन्होंने उस के बाह्य सौंदर्य की शोभा देखी थी, आज वह उसका आत्मिक सौंदर्य देख रहे हैं।
तुलसी का घर एक गली में था। इक्का सड़क पर जाकर ठहर गया। व्रजनाथ इक्के पर से उतरे, और अपनी छड़ी टेकते हुए भामा के हाथों के सहारे तुलसी के घर पहुँचे। तुलसी ने रुपए लिये और दोनों हाथ फैलाकर आशीर्वाद दिया—दुर्गाजी तुम्हारा कल्याण करें!
तुलसी का वर्णहीन मुख वैसे ही खिल गया, जैसे वर्षा के पीछे वृक्षों की पत्तियाँ खिल जाती है। सिमटा हुआ अंग फैल गया, गालों की झुर्रियाँ मिटती देख पड़ीं। ऐसा मालूम होता था, मानो उसका कायाकल्प हो गया।
वहाँ से आकर ब्रजनाथ अपने द्वार पर बैठे हुए थे, कि गोरेलाल आकर बैठ गये। ब्रजनाथ ने मुँह फेर लिया।
गोरेलाल बोला—भाई साहब, कैसी तबीयत है।
ब्रजनाथ—बहुत अच्छी तरह हूँ।
गोरेलाल—मुझे क्षमा कीजियेगा। मुझे इसका बहुत खेद है, कि आपके रुपए देने में इतना विलम्ब हुआ। पहली तारीख ही को घर से एक