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प्रेम-द्वादशी

विचार बहुत ही उदार थे ! वह मुझे उन विचारों से बहुत नीचे देखकर कदाचित् मन-ही-मन खिन्न होते थे ; परंतु उस में मेरा कोई अपराध न देख कर हमारे रस्म-रिवाज पर मुँझलाते थे। उन्हें मेरे साथ बैठकर बातचीत करने में जरा भी आनन्द न आता । सने आते, तो कोई न कोई अँगरेज़ी पुस्तक साथ लाते, और नोंद न आने तक पढ़ा करते । जो कभी मैं वैठती, कि क्या पढ़ते हो, तो मेरी ओर करुण-दृष्टि से देखकर उत्तर देते--तुम्हें क्या बतलाऊँ, यह 'श्रासकर वाइल्ड' की सर्वश्रेष्ठ रचना है। मैं अपनी अयोग्यता पर बहुत लजित थी। अपने को धिक्कारती, मैं ऐसे विद्वान् पुरुष के योग्य नहीं हूँ। मुझे तो किसी उजड्ड के घर पड़ना था। बाबूजी मुझे निरादर की दृष्टि से नहीं देखते थे, यही मेरे लिये सौभाग्य की बात थी।

एक दिन संध्या समय मैं रामायण पढ़ रही थी। भरतजी रामचंद्रजी की खोज में निकले थे। उनका करुण विलाप पढ़कर मेरा हृदय गद्गद हो रहा था । नेत्रों से अश्रुधारा बह रही थी। हृदय उमड़ा आता था । सहमा बाबूजी कमरे में आये। मैंने पुस्तक तुरन्त बन्द कर दी। उनके मामने मैं अपने फूहड़ान को भरसक प्रकट न होने देती थी ; लेकिन उन्होंने पुस्तक देख ली, और पूछा-रामायन है न ?

मैंने अपराधियों की भाँति सिर झुकाकर कहा-हाँ, जरा देख रही थी।

बाबूजी--इसमें शक नहीं, कि पुस्तक बहुत ही अच्छी, भावों से भरी हुई है ; लेकिन इसमें मानव-चरित्र को वैसी खूबी से नहीं दिखाया गया, जैसा अँगरेज़ या फ्रांसीसी लेखक दिखलाते हैं। तुम्हारी समझ में तो न आवेगा; लेकिन कहने में क्या हरज है, योरप में अाजकल 'स्वाभाविकता' ( Realism) का ज़माना है । वे लोग मनोभावों के उत्थान और पतन का ऐसा वास्तविक वर्णन करते हैं, कि पढ़कर आश्चर्य होता है । हमारे यहाँ कवियों को पग-पग पर धर्म तथा नीति का ध्यान रखना पड़ता है, इसलिए कभी-कभी उनके भावों में अस्वाभाविकता आ जाती है; और यही त्रुटि तुलसीदास में भी है।