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दुर्गा का मन्दिर


ब्रज॰—तुम्हारी क़सम।

भामा गिन्नियों को पति के हाथ से छीनने की चेष्टा करने लगी।

व्रजनाथ ने कहा—क्यों छीनती हो?

भामा—लाओ मैं अपने पास रख लूँ।

व्रज॰—रहने दो मैं इसकी इत्तला करने थाने जाता हूँ।

भामा का मुख मलिन हो गया। बोली—पड़े हुए धन की क्या इत्तला?

व्रज॰—हाँ, और क्या, इन आठ गिन्नियों के लिए ईमान बिगाड़ूँ?

भामा—अच्छा तो सवेरे चले जाना। इस समय जाओगे, तो थाने में देर होगी।

व्रजनाथ ने भी सोचा, यही अच्छा। थानेवाले रात को तो कोई कार्रवाई करेंगे नहीं। जब अशर्फ़ियों को पड़ा ही रहना है, तब जैसे थाना वैसे मेरा घर।

गिन्नियाँ सन्दूक में रख दीं। खा-पीकर लेटे, तो भामा ने हँसकर कहा—आया धन क्यों छोड़ते हो? लाओ, मैं अपने लिए एक गुलूबन्द बनवा लूँ, बहुत दिनों से जी तरस रहा है।

माया ने इन समय हास्य का रूप धारण किया।

व्रजनाथ ने तिरस्कार करके कहा—गुलूबन्द की लालता में गले में फाँसी लगाना चाहती हो क्या?

(३)

प्रातःकाल व्रजनाथ थाने जाने के लिए तैयार हुए। कानून का एक लेक्चर छूट जायगा, कोई हरज नहीं। वह इलाहाबाद की हाईकोर्ट में अनुवादक थे। नौकरी में उन्नति की आशा न देखकर साल-भर से वकालत की तैयारी में मग्न थे; लेकिन अभी कपड़े पहन ही रहे थे, कि उनके एक मित्र, मुन्शी गोरेलाल आकर बैठ गये, और अपनी पारिवारिक दुश्चिन्ताओं की विस्तृत राम-कहानी सुनाकर अत्यन्त विनीत भाव से बोले—भाई साहब, इस समय मैं इन झंझटों में ऐसा फँस गया हूँ, कि