जो उस चेतना की याद दिलाता था। उसका हाथ से जाना जीव का देह त्याग करना था।
महादेव दिन-भर भूखा-प्यासा, थका-माँदा, रह-रहकर झपकियाँ ले लेता था; किन्तु एक क्षण में फिर चौंककर आँखें खोल देता और उस विस्तृत अन्धकार में उसकी आवाज़ सुनाई देती—'सत्त गुरदत्त शिवदत्त दाता।'
आधी रात गुजर गई थी। सहसा वह कोई आहट पाकर चौंका। देखा, एक दूसरे वृक्ष के नीचे एक धुँधला दीपक जल रहा है, और कई आदमी बैठे हुए आपस में कुछ बातें कर रहे हैं। वे सब चीलम पी रहे थे। तमाखू की महक ने उसे अधीर कर दिया। उच्च-स्वर से बोला—'सत्त गुरदत्त शिवदत्त दाता।' और उन आदमियों की और चिलम पीने चला; किन्तु जिस प्रकार बन्दूक की आवाज़ सुनते ही हिरन भाग जाते हैं, उसी प्रकार उसे आते देख सब-के-सब उठकर भागे। कोई इधर गया, कोई उधर। महादेव चिल्लाने लगा—'ठहरो-ठहरो!' एकाएक उसे ध्यान आ गया, ये सब चोर हैं। वह ज़ोर से चिल्ला उठा—'चोरचोर, पकड़ो पकड़ो!' चोरों ने पीछे फिरकर भी न देखा।
महादेव दीपक के पास गया, तो उसे एक कलसा रखा हुआ मिला। मोरचे से काला होरहा था। महादेव का हृदय उछलने लगा। उसने कल से में हाथ डाला, तो मोहरें थीं। उसने एक मोहर बाहर निकाली, और दीपक के उजाले में देखा; हाँ, मोहर थी। उसने तुरत कलसा उठा लिया, दीपक बुझा दिया और पेड़ के नीचे छिपकर बैठ रहा। साह से चोर बन गया।
उसे फिर शंका हुई, ऐसा न हो, चोर लौट आवें, और मुझे अकेला देखकर मोहरें छीन लें। उसने कुछ मोहरें कमर में बाँधी, फिर एक सूत्री लकड़ी से जमीन की मिट्टी हटाकर कई गड्ढे बनाये, उन्हें मोहरों से भरकर मिट्टी से ढँक दिया।
(४) महादेव के अन्तर्नेत्रों के सामने अब एक दूसरा ही जगत् था, चिंताओं और कल्पनाओं से परिपूर्ण। यद्यपि अभी कोष के हाथ से निकल जाने