अब साईंदास की जगह बंगाली बाबू मैनेजर हो गये थे।
इस के बाद कुँअर साहब बरहल आये। भाइयों ने यह वृत्तांत सुना, तो बिगड़े, अदालत की धमकी दी। माताजी को ऐसा धक्का पहुँचा, कि वह उसी दिन बीमार होकर और एक ही सप्ताह में इस संसार से विदा हो गईं। सावित्री को भी चोट लगी; पर उसने केवल सन्तोष ही नहीं किया, पति की उदारता और त्याग की प्रशंसा भी की। रह गये लाल साहब। उन्होंने जब देखा कि अस्तबल से घोड़े निकले जाते हैं, हाथी मकनपुर के मेले में बिकने के लिए भेज दिये गये हैं और कहार बिदा किये जा रहे हैं, तो व्याकुल हो पिता से बोले—बाबूजी, यह सब नौकर, घोड़े, हाथी कहाँ जा रहे हैं?
कुँअर—एक राजा साहब के उत्सव में।
लालजी—कौन से राजा?
कुँअर—उनका नाम राजा दीनसिंह है।
लालजी—कहाँ रहते हैं?
कुँअर—दरिद्रपुर।
लालजी—तो हम भी जायँगे।
कुँअर—तुम्हें भी ले चलेंगे; परन्तु इस बारात में पैदल चलनेबालों का सम्मान सवारों से अधिक होगा।
लालजी—तो हम भी पैदल चलेंगे।
कुँअर—वहाँ परिश्रमी मनुष्य की प्रशंसा होती है।
लालजी—तो हम सबसे ज्यादा परिश्रम करेंगे।
कुँअर साहब के दोनों भाई पाँच-पाँच हज़ार रुपए का गुज़ारा लेकर अलग हो गये। कुँअर साहब अपने और परिवार के लिए कठिनाई से एक हज़ार सालाना का प्रबन्ध कर सके; पर यह आमदनी एक रईस के लिए किसी तरह पर्याप्त नहीं थी। अतिथि-अभ्यागत प्रतिदिन टिके ही रहते थे। उन सब का भी सत्कार करना पड़ता था। बड़ी कठिनाई से निर्वाह होता था। इधर एक वर्ष से शिवदास के कुटुम्ब का भार भी सिर पर आ पड़ा; परन्तु कुँअर साहब कभी अपने निश्चय पर शोक नहीं