साथ उन विचारों को भी त्याग दूँ? इस अभागी रानी ने मुझे बुरी तरह फँसाया। जब तक जीती रही, कभी चैन से न बैठने दिया। मरी तो मेरे सिर पर यह बला डाल दी; परंतु मैं दरिद्रता से इतना डरता क्यों हूँ? दरिद्रता कोई पाप नहीं है। यदि मेरा त्याग हज़ारों घरानों को कष्ट और दुरवस्था से बचाये, तो मुझे उससे मुँह न मोड़ना चाहिये। केवल सुख से जीवन व्यतीत करना ही हमारा ध्येय नहीं है? हमारी मान-प्रतिष्ठा और कीर्ति सुख-भोग ही से तो नहीं हुआ करती। राज-मन्दिरों में रहने वाले और विलास में रत राणा प्रताप को कौन जानता है? यह उनका आत्म-समर्पण और कठिन व्रत-पालन ही है, जिसने उन्हें हमारी जाति का सूर्य बना दिया है। श्रीरामचन्द्र ने यदि अपना जीवन सुख-भोग में बिताया होता, तो आज हम उनका नाम भी न जानते। उनके आत्मबलिदान ने ही उन्हें अमर बना दिया। हमारी प्रतिष्ठा धन और विलास पर अवलम्बित नहीं है। मैं मोटर पर सवार हुआ तो क्या, और टट्टू पर चढ़ा तो क्या, होटल में ठहरा तो क्या, और किसी मामूली घर में ठहरा तो क्या, बहुत होगा, ताल्लुकेदार लोग मेरी हँसी उड़ावेंगे। इसकी परवा नहीं। मैं तो हृदय से चाहता हूँ, कि उन लोगों से अलग-अलग रहूँ। यदि इतनी ही निन्दा से सैकड़ों परिवारों का भला हो जाय, तो मैं मनुष्य नहीं, जो प्रसन्नता से उसे सहन करूँ। यदि अपने घोड़े और फ़िटन, सैर और शिकार, नौकर-चाकर और स्वार्थ-साधक हित-मित्रों से रहित होकर मैं सहस्रों अमीर-गरीब कुटुम्बों का, विधवाओं और अनाथों का भला कर सकूँ, तो मुझे इसमें कदापि विलम्ब न करना चाहिये। सहस्रों परिवारों के भाग्य इस समय मेरी मुट्ठी में हैं। मेरा सुख-भोग उनके लिए विष और मेरा आत्म-संयम उनके लिए अमृत है। मैं अमृत बन सकता हूँ, तो विष क्यों बनूँ? और फिर इसे आत्म-त्याग समझना भी मेरी भूल है। यह एक संयोग है, कि मैं आज इस जायदाद का अधिकारी हूँ। मैंने उसे कमाया नहीं। उसके लिए रक्त नहीं बहाया, पसीना नहीं बहाया। यदि वह जायदाद मुझे न मिली होती, तो मैं सहस्रों दीन-भाइयों की भाँति आज जीविकोपार्जन में लगा रहता। मैं
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बैंक का दिवाला