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शंखनाद

के अत्याचार का दंड उनकी स्त्री बेचारी को भोगना पड़ता था। कड़ी मेहनत के घर के जितने काम होते, वे उसी के सिर थोपे जाते । उपले पाथती, कुएँ से पानी लाती, आटा पीसती, और इतने पर भी जेठा- नियाँ सीधे मुँह बात न करतीं, वाक्य-वाणों से छेदा करतीं। एक बार जब वह पति से कई दिन रूठी रही, तो बाँके गुमान कुछ नर्म हुए ! बाप से जाकर बोले--मुझे कोई दूकान खोलवा दीजिये। चौधरी ने परमात्मा को धन्यवाद दिया । फूले न समाये । कई सौ रुपए लगाकर कपड़े को दूकान खुलवा दी । गुमान के भाग जगे | तनजेब के चुन्नटदार कुरते बनवाये, मलमल का साफा धानी रंग में रंगवाया। सौदा बिके या न बिके, उसे लाभ ही होता था ! दूकान खुलो हुई है, दस-पाँच गाढ़े मित्र जमे हुए हैं, चरस की दम और खयाल की तानें उड़ रही हैं-

'चल झटपट री, जमुना-तट री, खड़ो नटखट री'

इस तरह तीन महीने चैन से कटे । बाँके गुमान ने खूब दिल खोलकर अरमान निकाले ; यहाँ तक कि सारी लागत लाभ हो गई ! टाट के टुकड़े के सिवा और कुछ न बचा । बूढ़े चौधरी कुएँ में गिरने चले, भावजों ने घोर अान्दोलन मचाया-अरे राम ! हमारे बच्चे और हम चीथड़ों को तरसें, गाढ़े का एक कुरता भी नसीब न हो, और इतनी बड़ी दूकान इस निखट्ट का कफ़न बन गई। अब कौन मुँह दिखावेगा ? कौन मुँह लेकर घर में पैर रखेगा ; किन्तु बाँके गुमान के तेवर ज़रा भी मैले न हुए। वही मुँह लिये वह फिर घर श्राया और फिर वही पुरानी चाल चलने लगा। कानूनदाँ बितान उसके ये ठाट-बाट देखकर जल जाता । मैं सारे दिन पसीना बहाऊँ, मुझे नैनसुख का कुरता भी न मिले, यह अपाहिज सारे दिन चारपाई तोड़े, और यों बन-ठनकर निकले ? ऐसे वस्त्र तो शायद मुझे अपने ब्याह में भी न मिले होंगे। मीठे शान के हृदय में भी कुछ ऐसे ही विचार उठते थे । अन्त में जब यह जलन न सही गई, और अग्नि भड़की, तो एक दिन कानूनदाँ बितान को पत्नी गुमान के सारे कपड़े उठा लाई और उन पर मिट्टी का तेल उड़ेलकर आग लगा दी। ज्वाला उठी। सारे कपड़े देखते-देखते जल कर राख हो गये। गुमान