पृष्ठ:प्रेम-द्वादशी.djvu/१६२

यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
१६२
प्रेम-द्वादशी


पंचायत में किसकी जीत होगी, इस विषय में जुम्मन को कुछ भी सन्देह न था। आस-पास के गाँवों में ऐसा कौन था, जो उनके अनुग्रहों का ऋणी न हो? ऐसा कौन था, जो उनको शत्रु बनाने का साहस कर सके? किसमें इतना बल था, जो उनका सामना कर सके? आसमान के फ़रिश्ते तो पंचायत करने आवेंगे ही नहीं!

(३)

इसके बाद कई दिन तक बूढ़ी ख़ाला हाथ में एक लड़की लिये आस-पास के गाँवों में दौड़ती रही। कमर झुककर कमान हो गई थी। एक-एक पग चलना दूभर था; मगर बात आ पड़ी थी। उसका निर्णय करना ज़रूरी था।

बिरला ही कोई भला आदमी होगा, जिसके सामने बुढ़िया ने दुःख के आँसू न बहाये हों। किसी ने तो यों ही ऊपरी मन से हूँ हाँ करके टाल दिया, और किसी ने इस अन्याय पर ज़माने को गालियाँ दीं। कहा—कब्र में पाँव लटके हुए हैं, आज मरे, कल दूसरा दिन; पर हवस नहीं मानती। अब तुम्हें क्या चाहिये? रोटी खाओ, और अल्लाह का नाम लो। तुम्हें अब खेती-बारी से क्या काम? कुछ ऐसे सज्जन भी थे, जिन्हें हास्य के रसास्वादन का अच्छा अवसर मिला। झुकी हुई कमर, पोपला मुँह, सन के-से बाल। जब इतनी सामग्रियाँ एकत्र हों, तह हँसी क्यों न आवे? ऐसे न्यायप्रिय, दयालु, दीनवत्सल पुरुष बहुत कम थे, जिन्होंने उस अबला के दुखड़े को ग़ौर से सुना हो, और उसको सांत्वना दी हो। चारों ओर से घूम-घामकर बेचारी अलगू चौधरी के पास आई। लाठी पटक दी, और दम लेकर बोली—बेटा, तुम भी दमभर के लिए मेरी पंचायत में चले आना।

अलगू—मुझे बुलाकर क्या करोगी? कई गाँव के आदमी तो आवेंगे ही।

खाला—अपनी विपद तो सबके आगे रो आई। अब आने-न-आने का अख़्तियार उनको है।