खेलते थे; लेकिन एक-न-एक चाल ऐसी बेढब आ पड़ती थी, ज़िससे बाज़ी खराब हो जाती थी। हर बार हार के साथ प्रतिकार की भावना और भी उग्र होती जाती थी; उधर मीर साहब मारे उमंग के ग़ज़लें गाते थे, चुटकियाँ लेते थे, मानो कोई गुप्त धन पा गये हों। मिर्ज़ाजी सुन-सुनकर झुँझलाते और हार की झेंप मिटाने के लिए उनकी दाद देते थे; पर ज्यों-ज्यों बाज़ी कमज़ोर पड़ती थी, धैर्य हाथ से निकलता जाता था। यहाँ तक कि वह बात-बात पर झुँझलाने लगे—जनाब, आप चाल न बदला कीजिये। यह क्या कि एक चाल चले, और फिर उसे बदल दिया। जो कुछ चलना हो, एक बार चल लीजिये। यह आप मुहरे पर ही हाथ क्यों रखे रहते हैं? मुहरे को छोड़ दीजिये। जब तक आपको चाल न सूझे मुहरा छूइये ही नहीं। आप एक-एक चाल आध-आध घंटे में चलते हैं। इसकी सनद नहीं। जिसे एक चाल चलने में पाँच मिनट से ज़्यादा लगे, उसकी मात समझी जाय। फिर आपने चाल बदली! चुपके से मुहरा वहीं रख दीजिये।
मीर साहब का फ़रजी पिटता था। बोले—मैंने चाल चली ही कब थी?
मिर्ज़ा—आप चाल चल चुके हैं। मुहरा वहीं रख दीजिये—उसी घर में।
मीर—उस घर में क्यों रखूँ? हाथ से मुहरा छोड़ा कब था?
मिर्ज़ा—मुहरा आप कयामत तक न छोड़ें, तो क्या चाल ही न होगी? फरज़ी पिटते देखा, तो धाँधली करने लगे!
मीर—धाँधली आप करते हैं। हार-जीत तक़दीर से होती है; धाँधली करने से कोई नहीं जीतता।
मिर्ज़ा—तो इस बाज़ी में आपको मात हो गई?
मीर—मुझे क्यों मात होने लगी।
मिर्ज़ा—तो आप मुहरा उसी घर में रख दीजिए, जहाँ पहले रखा था।
मीर—वहाँ क्यों रखूँ? नहीं रखता।