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शतरंज के खिलाड़ी

थे; दो ही किस्तों में मीरसाहब को मात हुई जाती थी। झुँझलाकर बोले—क्या ऐसा दम लबों पर है? ज़रा सब्र नहीं होता?

मीर—अरे तो जाकर सुन ही आइये न। औरतें नाजुक़-मिज़ाज होती ही हैं।

मिर्ज़ा—जी हाँ, चला क्यों न जाऊँ! दो किश्तों में आपको मात होती है।

मीर—जनाब, इस भरोसे न रहियेगा। वह चाल सोची है, कि आपके मुहरे धरे रहें, और मात हो जाय; पर जाइये, सुन आइये। क्यों ख्वाहमख्वाह उनका दिल दुखाइयेगा?

मिर्ज़ा—इसी बात पर मात ही करके जाऊँगा।

मीर—मैं खेलूँगा ही नहीं। आप जाकर सुन आइए।

मिर्ज़ा—अरे यार, जाना पड़ेगा हकीम के यहाँ, सिर दर्द खाक नहीं है; मुझे परेशान करने का बहाना है।

मीर—कुछ ही हो, उनकी खातिर तो करनी पड़ेगी।

मिर्ज़ा—अच्छा, एक चाल और चलूँ।

मीर—हर्ग़िज नहीं, जब तक आप सुन न आवेंगे, मैं मुहरे में हाथ ही न लगाऊँगा।

मिर्ज़ा साहब मज़बूर होकर अन्दर गये, तो बेगम साहब ने त्योरियाँ बदल कर; लेकिन कराहते हुए कहा—तुम्हें निगोड़ी शतरंज इतनी प्यारी है! चाहे कोई मर ही जाय; पर उठने का नाम नहीं लेते! नौज कोई तुम जैसा आदमी हो!

मिर्ज़ा—क्या कहूँ मीरसाहब मानते ही न थे। बड़ी मुश्किल से पीछा छुड़ाकर आया हूँ।

बेगम—क्या जैसे वह खुद निखट्टू हैं, वैसे ही सबको समझते हैं? उनके भी तो बाल-बच्चे हैं, या सबका सफ़ाया कर डाला?

मिर्ज़ा—बड़ा लती आदमी है। जब आ जाता है, तब मजबूर होकर मुझे भी खेलना ही पड़ता है।

बेगम—दुतकार क्यों नहीं देते?