बुद्धू--मुझे !
हरिहर--तुम नहीं लाठी कंधे पर रखे बछिया को बाँध रहे थे ?
बुद्ध--बड़ा सच्चा है तू! तूने मुझे बछिया को बाँधते देखा था ?
हरिहर--तो मुझ पर काहे को बिगड़ते हो भाई ? तुमने नहीं बाँधी, नहीं सही।
ब्राह्मण--इसका निश्चय करना होगा । गो-इत्या का प्रायश्चित्त करना पड़ेगा । कुछ हँसी-ठट्ठा है !
झींगुर--महाराज, कुछ जान बूझकर तो बाँधी नहीं।
ब्राह्मण--इससे क्या होता है ? हत्या इसी तरह लगती है ; कोई गऊ को मारने नहीं जाता।
झींगुर--हाँ, गऊओं को खोलना-बाँधना है तो जोखिम का काम !
ब्राह्मण--शास्त्रों में इसे महाराप कहा है। गऊ की हत्या ब्राह्मण की हत्या से कम नहीं।
झींगुर--हाँ, फिर गऊ तो ठहरी ही। इसी से न इसका मान होता सो गऊ ; लेकिन महाराज, चूक हो गई। कुछ ऐसा कीजिये, कि थोड़े में बिचारा निपट जाय ।
बुद्धू खड़ा सुन रहा था, कि अनायास मेरे सिर हत्या मढ़ी जा रही है । झींगुर की कूटनीति भी समझ रहा था। मैं लाख कहूँ, मैंने बछिया नहीं बाँधी, मानेगा कौन ? लोग यही कहेंगे कि प्रायश्चित्त से बचने के लिए ऐसा कह रहा है।
ब्राह्मण देवता का भी उसका प्रायश्चित कराने में कल्याण होता था। भला ऐसे अवसर पर कब चूकनेवाले थे । फल यह हुआ, कि बुद्धू को हत्या लग गई । ब्राह्मण भी उससे जले हुए थे । कसर निकालने की घात मिली । तीन मास का भिक्षा-दंड दिया, फिर सात तीर्थ-स्थानों की यात्रा, उसपर पांच सौ विप्रों का भोजन और पाँच गउओं का दान । बुद्धू ने सुना, तो बधिया बैठ गई । रोने लगा, तो दंड घटाकर दो मास का कर दिया । इसके सिवा कोई रियायत न हो सकी। न कहीं अपील
न कहीं फरियाद ! बेचारे को यह दण्ड स्वीकार करना पड़ा।