उसने हमको उत्तम-उत्तम वस्तुएँ भोगने के लिए ही दी हैं। उनको भोगना ही उसकी सर्वोत्तम आराधना है। एक ईसाई लेडी मुझे पढ़ाने तथा गाना सिखाने आने लगी । घर में एक पियानो भी आ गया। इन्हीं आनन्दों में फँसकर मैं रामायण और भक्तमाल को भूल गई । वे पुस्तकें मुझे अप्रिय मालूम होने लगीं । देयतों पर से विश्वास भी उठ गया ।
धीरे-धीरे यहाँ के बड़े लोगों से स्नेह और सम्बन्ध बढ़ने लगा। यह एक बिलकुल नई सोसाइटी थी । इसका रहन-सहन, आहार-व्यवहार और आचार-विचार मेरे लिए सर्वथा अनोखे थे। मैं इस सोसाइटी में ऐसी जान पड़ती, जैसे मोरों में कौया । इन लेडियों की बातचीत कभी थियेटर और घुड़दौड़ के विषय में होती, कभी टेनिस, समाचार-पत्रों और अच्छे- अच्छे लेखकों के लेखों पर । उनके चातुर्य, बुद्धि की तीव्रता, फुतीं और चपलता पर मुझे अचंभा होता। ऐसा मालूम होता, कि वे ज्ञान और प्रकाश की पुतलियाँ हैं । वे बिना यूँघट बाहर निकलतीं । मैं उनके साहस पर चकित रह जाती। वे मुझे भी कभी-कभी अपने साथ ले जाने की चेष्टा करती लेकिन मैं लजावश न जा सकती। मैं उन ले डियों को कभी उदास या चिन्तित न पाती। मिस्टर दास बहुत बीमार थे ;परन्तु मिसेज दास के माथे पर चिन्ता का चिह्न तक न था। मिस्टर बागड़ी नैनीताल में तपेदिक का इलाज करा रहे थे ; पर मिसेज़ बागड़ी नित्य टेनिस खेलने जाती थीं। इस अवस्था में मेरी क्या दशा होती, यह मैं ही जानती हूँ।
इन लेडियों की रीति-नीति में एक आकर्षण-शक्ति थी, जो मुझे खीचे लिये जाती थी। मैं उन्हें सदैव आमोद-प्रमोद के लिए उत्सुक देखती, और मेरा भी जी चाहता कि उन्हीं की भाँति मैं निस्संकोच हो जाती । उनका अँगरेजी वार्तालाप सुनकर मुझे मालूम होता कि वे देवियाँ हैं । मैं अपनी इन त्रुटियों की पूर्ति के लिए प्रयत्न किया करती थी।
इसी बीच में मुझे एक खेदजनक अनुभव होने लगा ; यद्यपि बाबूजी पहले से मेरर अधिक आदर करते, मुझे सदैव 'डियर-डार्लिंग' आदि कहकर पुकारते थे, तथापि मुझे उनकी बातों में एक प्रकार की बनावट