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डिक्री के रुपये


कैलाश—यहाँ आज सोलहो दंड एकादशी है। सब-के-सब शोक में बैठे उसी अदालत के जल्लाद की राह देख रहे हैं। खाने-पीने का क्या ज़िक्र! तुम्हारे बेग में कुछ हो, तो निकालो। आज साथ बैठकर खा लें, फिर तो ज़िन्दगी-भर का रोना है ही।

नईम—फिर तो ऐसी शरारत न करोगे?

कैलास—वाह, यह तो अपने रोम-रोम में व्याप्त हो गई है। जब तक सरकार पशुबल से हमारे ऊपर शासन करती रहेगी, हम उसका विरोध करते रहेंगे। खेद यही है, कि अब मुझे उसका अवसर ही न मिलेगा; किन्तु तुम्हें बीस हज़ार रुपए में से बीस टके भी न मिलेंगे। यहाँ रद्दियों के ढेर के सिवा और कुछ नहीं है।

नईम—अजी, मैं तुमसे बीस हज़ार की जगह उसका पचगुना वसूल कर लूँगा। तुम हो किस फेर में?

कैलास—मुँह धो रखिये!

नईम—मुझे रुपयों की ज़रूरत है। आओ, कोई समझौता कर लो।

कैलास—कुँअर साहब के बीस हज़ार रुपये डकार गये, फिर भी अभी संतोष नहीं हुआ? बदहज़मी हो जायगी!

नईम—धन से धन की भूख बढ़ती है, तृप्ति नहीं होती। आओ कुछ मामला कर लो। सरकारी कर्मचारियों-द्वारा मामला करने में और भी ज़ेरबारी होगी।

कैलास—अरे तो क्या मामला कर लूँ। यहाँ काग़ज़ों के सिवा और कुछ हो भी तो!

नईम—मेरा ऋण चुकाने-भर को बहुत है। अच्छा इसी बात पर समझौता कर लो कि जो चीज़ चाहूँ, ले लूँ। फिर रोना मत।

कैलास—अजी तुम सारा दफ़्तर उठा ले जाओ, घर उठा ले जाओ, मुझे उठा ले जाओ, और मीठे टुकड़े खिलाओ। क़सम ले लो, जो ज़रा भी चूँ करूँ।

नईम—नहीं, मैं सिर्फ़ एक चीज़ चाहता हूँ, सिर्फ़ एक चीज़।