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ब्धता छाई हुई थी, जो गृह-स्वामी के गुप्त रोदन की सूचना देती हैं। न बालकों का शोर-गुल था, और न माता की शान्ति प्रसारिणी शब्द-ताड़ना। जब दीपक बुझ रहा हो, तो घर में प्रकाश कहाँ से आये? यह आशा का प्रभाव नहीं शोक का प्रभाव था; क्योंकि आज ही कुर्क-अमीन कैलास की सम्पत्ति को नीलाम करने के लिए आनेवाला था।

उसने अंतर्वेदना से विकल होकर कहा—आह! आज मेरे सार्वजनिक जीवन का अन्त हो जायगा। जिस भवन का निर्माण करने में अपने जीवन के पच्चीस वर्ष लगा दिये, वह आज नष्ट-भ्रष्ट हो जायगा। पत्र की गरदन पर छुरी फिर जायगी, मेरे पैरों में उपहास और अपमान की बेड़ियाँ पड़ जायँगी, मुख में कालिमा लग जायगी, यह शान्ति-कुटीर उजड़ जायगी यह शोकाकुल परिवार किसी मुरझाये हुए फूल की पँखड़ियों की भाँति बिखर जायगा। संसार में उसके लिए कहीं आश्रय नहीं है। जनता की स्मृति चिरस्थायी नहीं होती; अल काल में मेरी सेवायें विस्मृति के अन्धकार में लीन हो जायँगी। किसी को मेरी सुध भी न रहेगी, कोई मेरी विपत्ति पर आँसू बहानेवाला भी न होगा।

सहसा उसे याद आया कि आज के लिए अभी अग्रलेख लिखना है। आज अपने सुहृद पाठकों को सूचना दूँ, कि यह इस पत्र के जीवन का अन्तिम दिवस है, उसे फिर आपकी सेवा में पहुँचने का सौभाग्य प्राप्त न होगा। हमसे अनेक भूल हुई होंगी। आज हम उनके लिए आप से क्षमा माँगते हैं। आपने हमारे प्रति जो समवेदना और सहृदयता प्रकट की है, उसके लिए हम सदैव आप के कृतज्ञ रहेंगे। हमें किसी से कोई शिकायत नहीं है। हमें इस अकाल मृत्यु का दुःख नहीं है; क्योंकि यह सौभाग्य उन्हीं को प्राप्त होता है, जो अपने कर्तव्य-पथ पर अविचल रहते हैं। दुःख यही है, कि हम जाति के लिए इससे अधिक बलिदान करने में समर्थ न हुए।

इस लेख को आदि से अन्त तक सोचकर वह कुर्सी से उठा ही था, कि किसी के पैरों की आहट मालूम हुई। गरदन उठाकर देखा, तो मिरज़ा नईम था। वही हँसमुख चेहरा, वहीं मन्द मुसकान, वही क्रीड़ीमय नेत्र। आते ही कैलास के गले से लिपट गया।