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डिक्री के रुपये

सामने, क़त्ल कर दिया गया था। यद्यपि खूनी भाग गया था; पर अधिकारियों को सन्देह था, कि कुँअर साहब की दुष्प्रेरणा से ही यह हत्याभिनय हुआ है। कुँअर साहब अभी बालिग़ न हुए थे। रियासत का प्रबन्ध कोर्ट आफ् वार्ड द्वारा होता था। मैनेजर पर कुँअर साहब की देख-रेख का भाग भी था। विलास-प्रिय कुँअर को मैनेजर का हस्तक्षेप बहुत ही बुरा मालूम होता था। दोनो में वर्षों से मनमुटाव था। यहाँ तक कि कई बार प्रत्यक्ष कटु वाक्यों की नौबत भी था पहुँची थी; अतएव कुँअर साहब पर सन्देह होना स्वाभाविक ही था। इस घटना का अनुसंधान करने के लिए ज़िले के लिए हाकिम ने मिरज़ा नईम को नियुक्त किया। किस पुलिस कर्मचारी द्वारा तहक़ीक़ात कराने में कुँअर साहब के अपमान का भय था।

नईम को अपने भाग्य-निर्माण का स्वर्ण सुयोग प्राप्त हुआ। वह न त्यागी था, न ज्ञानी। सभी उसके चरित्र की दुर्बलता से परिचित थे; अगर कोई न जानता था, तो हुक्काम लोग। कुँअर साहब ने मुँह-माँगी मुराद पाई। नईम जब विष्णुपुर पहुँचा, तो उसका असामान्य आदर-सत्कार हुआ। भेंट चढ़ने लगीं, अरदली के चपरासी, पेशकार, साईस, बावर्ची, खिदमतगार, सभी के मुँह तर और मुट्ठियाँ गरम होने लगीं। कुँअर साहब के हवाली-मवाली रात-दिन घेरे रहते, मानो दामाद ससुराल आया हो।

एक दिन प्रातःकाल कुँअर साहब की माता आकर नईम के सामने हाथ बाँधे खड़ी हो गई। नईम लेटा हुआ हुक्का पी रहा था। तप, संयम और वैधव्य की यह तेजस्वी प्रतिमा देखकर वह उठ बैठा।

रानी उसकी ओर वात्सल्य-पूर्ण लोचनों से देखती हुई बोली—हुज़ूर मेरे बेटे का जीवन आपके हाथ में है। आपही उसके भाग्य-विधाता हैं। आपको उसी माता की सौगंद है, जिसके आप सुयोग्य पुत्र हैं, मेरे लाल की रक्षा कीजियेगा। मैं अपना सर्वस्व आपके चरणों पर अर्पण करती हूँ। स्वार्थ में दया के संयोग से नईम को पूर्ण रीति से वशीभूत कर लिया।