जाता है, और मनुष्य की आत्मोन्नति उसी प्रकार रुक जाती है, जैसे जल, प्रकाश और वायु के बिना पौदे सूख़ जाते हैं। हमारे घरों में यह बड़ा अन्वेर है। अब मैं तो उनका पुत्र ही ठहरा, उनके सामने मुँह नहीं खोल सकता । मेरे ऊपर उनका बहुत बड़ा अधिकार है ; अतएव उनके विरुद्ध एक शब्द भी कहना मेरे लिये लज्जा की बात होगी, और यही बन्धन तुम्हारे लिए भी है । यदि तुमने उनकी बातें चुपचाप न सुन ली होती, तो मुझे बहुत ही दुःख होता | कदाचित् मैं विष खा लेता । ऐसी दशा में दो ही बातें सम्भव हैं, या तो सदैव उनकी बुइकियों-मिड़कियों को सहे जानो, या अपने लिये कोई दूसरा रास्ता हूँढ़ो। अब इस बात की श्राशा करना, कि अम्माँ के स्वभाव में कोई परिवर्तन होगा, बिलकुल भ्रम है । बोलो, तुम्हें क्या स्वीकार है !
मैंने डरते-डरते कहा--आपकी जो आज्ञा हो, वह करूँ । अब कभी न पहूँ लिखूगी, और जो कुछ वह कहेंगी, वही करूँगी । यदि वह इसी में प्रसन्न हैं, तो यही सही-मुझे बढ़-लिखकर क्या करना है ?
बाबूजी--पर यह मैं नहीं चाहता। अम्माँ ने आज प्रारम्भ किया है। अब रोज बढ़ती ही जायँगी । मैं तुम्हें जितना ही सभ्य तथा विचारशील बनाने की चेष्टा करूँगा, उतना ही उन्हें बुरा लगेगा, और उनका गुस्सा तुम्हीं पर उतरेगा । उन्हें पता नहीं, कि जिस आवहवा में उन्होंने अपनी जिन्दगी बिताई है, वह अब नहीं रही। विचार-स्वातंत्र्य और समयानु कूलता उनकी दृष्टि में अधर्म से कम नहीं । मैंने यह उपाय सोचा है कि किसी दूसरे शहर में चलकर अपना अड्डा जमाऊँ । मेरी वकालत भी यहाँ नहीं चलती ; इसलिए किसी बहाने की भी आवश्यकता न पड़ेगी।
मैं इस तजवीज़ के विरुद्ध कुछ न बोली ; यद्यपि मुझे अकेले रहने से भय लगता था, तथापि वहाँ स्वतंत्र रहने कीपाशा ने मन को प्रफु बित कर दिया। बावजी-
उसी दिन से अम्माँ ने मुझसे बोलना छोड़ दिया। महरियों, पड़ो- सियों और ननदों के आगे मेरा परिहास किया करतीं। यह मुझे बहुत