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प्रेमाश्रम

हृदय पर एक बोझा-सा रखा हुआ था। इसे वह हल्का करना चाहती थी। ज्ञानशंकर को विद्या की दृष्टि में गिराना भी अभीष्ट था। यद्यपि उसका स्वयं अपमान होता था, लेकिन ज्ञानशंकर को लज्जित और निदित करने के लिए वह इतना मूल्य देने पर तैयार थी, किंतु बात मुंह तक आ कर लौट जाती थी। और गायत्री को कोई बात न सूझती थी। अकस्मात् उसे एक विचार सूझ पड़ा। उसने विद्या को हिला कर कहा, क्या सोने लगी? मेरा जी चाहता है कि कालपरसों तक यहाँ से चली जाऊँ।।

विद्या ने कहा, इतना जल्द! भला जब तक मैं हूं, तब तक तो रहो।

गायत्री नहीं, अब यह जी नहीं लगता। वहाँ काम-काज भी तो देखना है।

विद्या–लेकिन अभी तक तो तुमने बाबू जी से इसकी चर्चा भी नहीं की।

गायत्री---उनसे क्या कहना है? जाऊँ चाहे रहूँ, दोनों एक ही है।

विद्या- तो फिर मैं भी न रहूँगी, तुम्हारे साथ ही चली जाऊँगी।

गायत्री—तुम कहाँ जाओगी? अब यहीं तुम्हारा घर है। तुम्ही यहाँ की रानी हो। ज्ञान बाबू से कहो, इलाके का प्रबंध करे। दोनों प्राणी यही सुखपूर्वक रहो।

विद्या-समझा तो मैंने भी यही था, लेकिन विधाता की इच्छा कुछ और ही जान पड़ती हैं। कई दिन से बराबर देख रही हैं कि पंडित परमानन्द नित्य आते हैं। चिंताराम भी आते जाते है। ये लोग कोई न कोई षड्यंत्र रच रहे हैं। तुम्हारे चले जाने से इन्हें और भी अवसर मिल जायगा।

गायत्री--तो क्या बाबू जी को फिर विवाह करने की सूझी है क्या?

विद्या-मुझे तो ऐसा ही मालूम होता है।

गायत्री-अगर यह विचार उनके मन में आया है तो वह किसी के रोके न रुकेंगे। मेरा लिहाज वे करते है, पर इस विषय में वह शायद ही मेरी राय लें। उन्हें मालूम है कि मैं उन्हें क्या राय दूँगी।

विद्या—तुम रहती तो उन्हें कुछ न कुछ संकोच अवश्य होता।

गायत्री-मुझे इसकी आशा नहीं। वहाँ रहूँगी तो कम से कम वहीं देख-रेख तो करती रहूँगी, तीन महीने हो गये, लोगों ने न जाने क्या क्या उपद्रव खड़े किये होंगे। एक दर्जन नातेदार द्वार पर डटे पड़े रहते हैं। एक महाशय नाते में मेरे मामू होते है, वे सुबह से शाम तक मछलियों का शिकार किया करते है। दुसरे महाशय मेरी फूफी के सुपुत्र है, वे मेरे ससुर के समय से ही वहाँ रहते है। उनका काम मुहल्ले भर की स्त्रियों को घूरना और उनसे दिल्लगी करना है। एक तीसरे महाशय मेरी ननद के छोटे देवर है, रिश्वत के बाजार के दलाल हैं। इस काम से जो समय बचता है वह भंग पीने-पिलाने में लगाते है। इन लोगों में बड़ा भारी गुण यह है कि संतोषी है। आनन्द से भोजन-वस्त्र मिलता जाय इसके सिवा उन्हें कोई चिंता नहीं। हाँ, जमींदारी का घमंड सबको है, सभी असामियों पर रौब जमाना चाहते हैं, उनका गला दबाने के लिए सब तत्पर रहते है। बेचारे किसानों को, जो अपने परिश्रम की रोटियाँ खाते है, इन निठल्लों का अत्याचार केवल इसलिए सहना पड़ता है कि वह मेरे दूर के नातेदार हैं।