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प्रेमाश्रम

नहीं हुआ, उसके मनोभाववों की तह तक कभी नहीं पहुँची और यद्यपि उसे मरे हुए तीन साल बीत चुके थे, पर वह अभी तक आध्यात्मिक श्रद्धा से उसकी स्मृति की आराधना किया करती थी। उसका निष्फल हृदय वासनायुक्त प्रेम के रहस्यों से अनभिज्ञ था। किंतु इसके साथ ही सगर्वती उसके स्वभाव को प्रधान अंग थी। वह अपने को उससे कहीं ज्यादा विवेकशील और मर्मज्ञ समझती थी, जितनी बहू वास्तथ में थी। उसके मनोवेग और विचार जल के नीचे बैठनेवाले रोड़े नहीं सतह पर तैरनेवाले बुलबुले थे। ज्ञानशंकर एक रूपवान, सौम्य, मृदुमुख मनुष्य थे। गायत्री सरल भाव से इन गुणों पर मुग्ध थी। वह उनसे मुस्कराकर कहती, तुम्हारी बातों में जादू है, तुम्हारी बातों से कभी मन तृप्त नहीं होता। ज्ञानशंकर के सम्मुख विद्या से कहती, ऐसा पति पा कर भी तू अपने भाग्य को नहीं सराहती? यद्यपि ज्ञानशंकर उससे दो-चार ही मास छोटे थे, पर उसकी छोटी बहन के पति थे, इसलिए वह उन्हें छोटे भाई के तुल्य समझती थी। वह उनके लिए अच्छे-अच्छे भोज्य पदार्थ आप बनाती, दिन में कई बार जलपान करने के लिए घर में बुलाती थी। उसे धार्मिक और वैज्ञानिक विषयों से विशेष रुचि थी। ज्ञानशंकर से इसी विषय की बातें करने और सुनने में उसे हार्दिक आनंद प्राप्त होता था। वह साली के नाते से प्रथानुसार उनसे दिल्लगीं भी करती, उन पर भावमय चोटें करती और हँसती थी। मुँह लटका कर उदास बैठना उसकी आदत न थी। वह हँसमुख, विनयशील, सरल-हृदय, विनोद-प्रिय रमणी थी, जिसके हृदय में लीला और क्रीड़ा के लिए कहीं जगह न थी।

किंतु उसको यह सरल सीधा व्यवहार ज्ञानशंकर की मलिन दृष्टि में परिवर्तित हो जाता था। उज्ज्वलता मे वैचित्र्य और समता में विषमता दीख पड़ती थी। उन्हें गायत्री संकेत द्वारा कहती हुई मालूम होती, 'आओ, इस उजड़े हुए हृदय को आबाद करो। आ, इस अन्धकारमय कुटीर को आलोकित करो।' इस प्रेमाह्वान का अनादर करना उनके लिए असाध्य था। परन्तु स्वयं उनके हृदय ने गायत्री को यह निमंत्रण नहीं दिया, कभी अपना प्रेम उस पर अर्पण नहीं किया--उन्हें बहुधा क्लब में देर हो जाती, चाय की बाजी अधूरी न छोड़ सकते थे; कभी सैर-सपाटे में विलम्ब हो जाता, किंतु वह स्वयं विकल न होते, यही सोचते कि गायत्री विकल में ही होगी। अग्नि गायत्री के हृदय मे जलती थी, उन्हें केवल उसमें हाथ सेंकना था। उन्हें इस प्रयास में वही उल्लास होता था, जो किसी शिकारी को शिकार में, किसी खिलाड़ी को बाजी की जीत में होता है। वह प्रेम न था, वशीकरण की इच्छा थी। इस इच्छा और प्रेम में बड़ा भेद हैं, इच्छा अपनी और खीचती है, प्रेम स्वयं खिंच जाता है। इच्छा में ममत्व है, प्रेम में आत्मसमर्पण। ज्ञानशंकर के हृदयस्थल मैं यहीं वशीकरण-चेष्टा किलोलें कर रही थी।

गायत्री भोली सही, अज्ञान सही, पर शनैःशुनै उसे ज्ञानशंकर से लगाव होता जाता। था। यदि कोई भूल कर भी विष खा ले, तो उसका असर क्या कुछ काम होगा। ज्ञानशंकर को बाहर से आने में देर होती, तो उसे बेचैनी होने लगती, किसी काम में भी नहीं लाता, वह अटारी पर चढ़ कर उनकी बाट जोहती। वह पहले विद्यावती के