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प्रेमाश्रम

है, दूसरी ओर बिसेसर साह बैठे जिन्स तौल रहे है। चारों ओर घड़े और हाँड़ियों टूटी पड़ी थी। एक वृक्ष की छाँह में कितने ही आदमी सिकुड़े बैठे थे, जिनके मुकदमों की आज पेशी होनेवाली थी। बलराज पेड़ो की आड़ में होता हुआ ज्वालासिंह के खेमे के पास जा पहुँचा। उसे यह घड़का लगा हुआ था कि कहीं उन दोनों चपरासियों की निगाह मुझपर न पड़ जाय। वह खड़ा सोचने लगा कि डिप्टी साहब के सामने कैसे जाऊँ? उस पर इस समय एक रोब छाया हुआ था। खेमे के सामने जाते हुए पैर काँपते थे। अचानक उसे गौस खाँ और सुक्खू चौधरी एक पेड़ के नीचे आग तापते दिखाई पहे। अब वह खेमे के पीछे खड़ा न रह सका। उनके सामने धक्के खाना या डॉट सुनना मर जाने से भी बुरा था। वह जी कड़ा करके खेमे के सामने चला गया और ज्वालासिंह को सलाम करके चुपचाप खड़ा हो गया।

बाबू ज्वालासिंह एक न्यायशील और दयालु मनुष्य थे, किन्तु इन दो तीन महीना के दौरे में उन्हें अनुभव हो गया था कि बिना कड़ाई के मैं सफलता के साथ अपने कर्तव्य का पालन नहीं कर सकता। सौजन्य और शालीनता निज के कामों मे चाहे कितनी ही सराहनीय हो, लेकिन शासन-कार्य में यह सद्गुण अवगुण बन जाते है, लोग उनसे अनुचित लाभ उठाने लगते है, उन्हें अपनी स्वार्थ-सिद्धि का साधन बना लेते है। अतएव न्याय और शौल में परस्पर विरोध हो जाता है। रसद और बेगार के विषय में भी अधीनस्थ कर्मचारियों की चापलूसियाँ उनकी न्याय-नीति पर विजय पा गयी थी, और वह अज्ञात भाव से स्वेच्छाचारी अधिकारियों के वर्तमान साँचे में ढल गये थे। उन्हें अपने विवेक पर पहले से ही गर्व था, अब इसने आत्मश्लाघा का रूप धारण कर लिया था। वह जो कुछ कहते या करते थे उसके विरुद्ध एक शब्द भी न सुनना चाहते थे। इससे उनकी राय पर कोई असर न पड़ता था। वह निस्पृह मनुष्य थे और न्यायमार्ग से जी भर भी न ढलते थे। उन्हे स्वाभाविक रूप से यह विचार होता था कि किसी को मुझसे शिकायत न होनी चाहिए। अपने औचित्य-पालन का विश्वास और अपनी गौरवशील प्रकृति उन्हें प्राथियों के प्रति अनुदार बना देती थी। बलराज को सामने देख कर बोले, कौन हो? यहाँ क्यों खड़े हो?

बलराज ने झुक कर सलाम किया। उसकी उद्दडता लुप्त हो गयी थी। डरता हुआ बोला, हुजूर से कुछ बोलना चाहता हूँ। ताबेदार का घर इसी लखनपुर में है।

ज्वालासिंह-क्या कहना है?

बलराज-कुछ नहीं, इतना ही पूछना चाहता हूँ कि सरकार को आज कितनी गाड़ियों की जरूरत होगी।

ज्वालासिंह—क्या तुम गाड़ियों के चौधरी हो?

बलराज--जी नहीं, चपरासी लोग सड़क पर जा कर मुसाफिरों की गाड़ियाँ रोकते हैं और उन्हें दिक करते है। मैं चाहता हूँ कि सरकार को जितनी गाड़ियाँ दरकार हो, उतनी आस-पास के गाँव से खोज लाऊँ। उनकी सरकार से जो किराया मिलता हो वह दे दिया जाय तो मुसाफिरों को रोकना न पड़े।

ज्वालासिंह ने अपना सामान लादने के लिए ऊँट रख लिए थे, किन्तु यह जानते