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प्रेमाश्रम

भंग हो गया। राजसभा में बैठने का इतना शौक न रहा। बहुधा वृक्षपुत्रों में सन्ध्या समय पक्षियों के कलरव से कान पड़ी आवाज नहीं सुनायी देती लेकिन ज्योही अंधेरा हो जाता है और चिडियाँ अपने-अपने घोसल में जा बैठती हैं वहीं नीरवत्ता छा जाती है, उसी भाँति जाति के प्रतिनिधि गण राजसभा के सुसज्जित सुविशाल भवन में पहुँच कर शान्ति में मग्न हो गये। वे लम्बे-चौड़े वादें, वे बड़ी-बड़ी बात सब भूल गयी। कोई मुवक्किलो के सेवा-सत्कार में लिप्त हुआ, कोई अपने बही-खाते की देख-भाल में, कोई अपने सैर और शिकार मैं। जाति-हित की वह उमग शान्त हो गयी। लोग मनोविनोद की रीति से राजसभा में आते और कुछ निरर्थक प्रश्न पूछ कर या अपने वाक्य-नैपुण्य का परिचय दै कर विदा हो जाते। वह कौन सी प्रेरक शक्ति थी जिन्होंने लोगों को इन अधिकार पर आसक्त कर रखा था। इसका निर्णय करना कठिन है, पर उनमे सेवाभाव का जरा भी लगाव न था---यह निम्नन्ति है। कारण और कार्य, साधन और फल दोनो उस अधिकार में विलीन हो गये।

किन्तु प्रेमाश्रम में वह शिथिलती न थी। यहाँ लोग पहले से ही सेवाधर्म के अनुगामी थे। अब उन्हें अपने कार्यक्षेत्र को और विस्तृत करने का सुअवसर मिला। ये लोग नये-नये सुधार के प्रस्ताव सोचते, राजकीय प्रस्तावों के गुण-दोष की मौमासा करते, सरकारी रिपोर्टों का निरीक्षण करते। प्रश्नो द्वारा अधिकारियों के अत्याचारों का पता देते, जहाँ कहीं न्याय का खून होते देखते, तुरंत सभा का ध्यान उसकी और आकर्षित करते और ये लोग केवल प्रश्नों से ही सन्तुष्ट न हो जाते थे, वरन् प्रस्तुत विषयों के मर्म तक पहुँचने की चेष्टा करने। विरोध के लिए विरोध न करते बल्कि शोध के लिए। इस सदुद्योग और कर्तव्यपरायणता ने शीघ्र ही राजसभा में इस मित्र-मडल का सिक्का जमा दिया। उनकी झुकाएँ, उनके प्रस्ताव, इनके प्रतिवाद आदर की दृष्टि से देखे जाते थे। अबकारी-वर्ग उनकी वालो को चुटकियों में न उड़ा सकते थे। यद्यपि डाक्टर इर्फानअली इस मण्डल के मुखपात्र थे, पर खुला हुआ भेद था कि प्रेमशंकर ही उसके कर्णधार हैं।

इस तरह दो साल बीत गये और यद्यपि मंत्री-मण्डल ने सभा को मुग्ध कर लिया था, पर अभी तक प्रेमशंकर को अपना वह प्रस्ताव सभा में पेश करने का साहस न हुआ जो बहुत दिनों से उनके मन में समाया हुआ था और जिसका उद्देश्य यह था कि जमीदारों से असामियों को बेदखल करने का अधिकार ले लिया जाय। वह स्वयं जमींदार घराने के थे, माया जिसे वह पुत्रवत् प्यार करते थे एक बड़ा ताल्लुकेदार हो गया था। ज्वालासिंह भी जमींदार थे। लाला प्रभाशंकर जिनको वह पिता तुल्य समझते थे अपने अधिकारों मे जी भर की कमी भी न सह सकते थे, इन कारणों से वह प्रस्ताव को सभा के सम्मुर लाते हुए सकुचाते थे। यद्यपि सभा मे भूपतियों की संख्या काफी थी और संख्या के देखते दबाव और भी ज्यादा था, पर प्रेमशंकर को सभी को इतना भय न था जितना अपने संबंधियों का, इसके साथ ही अपने कर्तव्य-मार्ग से विचलित होते हुए उनकी आत्मा को दुख होता था।