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प्रेमाश्रम

पेट भंग पिला कर मुग्ध कर दिया। कई जगह मड़ियाँ लगवा दी जिससे कृषकों को अपनी जिन्हें बेचने में सुविधा हो गयी और रियासत को भी अच्छा लाभ होने लगा।

इस तरह दो साल गुजर गये। ज्ञानशंकर का सौभाग्य-सुर्य अब मध्याह्न पर था। राय साहब के ऋण से वह बहुत कुछ मुक्त हो चुके थे। हाकिमों में मान था, रईसो में प्रतिष्ठा थी, विद्वज्जनो में आदर था, मर्मत्र लेखक थे, कुशल वक्ता थे। सुख-भोग की सब सामग्रियाँ प्राप्त थी। जीवन की महत्त्वाकाक्षाएँ पूरी हो गयी थी। वह जब कभी अनेकाश के समय अपनी गत अवस्था पर विचार करते तब उन्हें अपनी सफलता पर आश्चर्य होता था। मैं क्या से क्या हो गया? अभी तीन ही साल पहले मैं एक हजार सालाना नफे के लिए सारे गाँव को फांसी पर चढ़वा देना चाहता था। तब मेरी दृष्टि कितनीं संकीर्ण थी। एक तुच्छ बात के लिए चचा से अलग हो गया, यहाँ तक कि अपने सगे भाई का भी अहित सोचता था। उन्हें फैसले में कोई बात उठा नही रखी। पर अब ऐसी कितनी रकमें दान कर देता हूँ। कहाँ एक ताँगा रखने की सामर्थ्य न थी, कहाँ अब मोटरें मैंगनी दिया करता हूँ। निस्सदेह इस सफलता के लिए मुझे स्वाँग भरने पड़े, हाथ रंगने पड़े, पाप, छल, कपट सब कुछ करने पड़े, किंतु अँधेरे में खोह में उतरे बिना अनमोल रत्न कहाँ मिलते है? लेकिन इसे अपने ही कृत्यो का फल समझना मेरी नितान्त भूल है। ईश्वरीय व्यवस्था न होती तो मेरी चाल कभी सीधी न पड़ती! उस समय तो ऐसा जान पड़ता था, कि पौसा पट पड़ा, बार खाली गया, लेकिन सौभाग्य से उन्हीं खाली वारो ने, उन्ही उल्टी चालों ने बाजी जिता दी।

ज्ञानाशंकर दूसरे-तीसरे महीने बनारस अवश्य जाते और प्रेमशंकर के पास रह कर सरल जीवन का आनद उठाते। उन्होंने प्रेमशंकर से कितनी ही बार साग्रह कहा कि अब आपको इस उजाड़ में झोपड़ा बना कर रहने की क्या जरूरत है? चल कर घर पर रहिए और ईश्वर की दी हुई सपत्ति भोगिए। यह मजूर न हो तो मेरे साथ चलिए। हुनास्दो हजार बीचे चक दे दें, वहीं दिल खोल कर कृषक जीवन का आनद उठाइए, लेकिन प्रेमशंकर कहते, मेरे लिए इतना ही काफी है, ज्यादा की जरूरत नहीं। हाँ, इस अनुरोध का इतना फल अवश्य हुआ कि वह अपनी मौत को बढ़ाने पर राजी हो गये। उनके डाँढ से मिली हुई पचास बीधे जमीन एक दूसरे जमींदार की थी। उन्होंने उसका पट्टा लिखा लिया और फूस के झोंपड़े की जगह खपरैल के मकान बनवा लिए। ज्ञानशंकर उनसे यह सब प्रस्ताव करते थे, पर उनके संतोषमय, सरल, निर्विरोध जीवन के महत्त्व से अनभिज्ञ थे। नाना प्रकार की चिताओं और बीघा में ग्रस्त रहने के बाद वहाँ के शान्तिमय, निविघ्न विश्राम से उनका चित्त प्रफुल्लित हो जाता था। यहाँ से जाने को जी न चाहता था। यह स्थान अब पहले की तरह न था, जहाँ केवल एक आदमी साधुओं की भाँति अपनी कुटी में पड़ा रहता हो। अब वह एक छोटी सी गुलजार बस्ती थी, जहाँ नित्य राजनीतिक और सामाजिक विषयों पर सम्वाद होते थे और जीवन-मरण के गूढ, जटिल प्रश्नो की मीमांसा की जाती थी! यह विद्वज्जनों