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प्रेमाश्रम

पर तैयार थे, उनकी घान्यशाला परिपूर्ण हो चुकी थी। अब उन्हें भिक्षुओं से घृणा ने थी। सम्पत्तिशाली हो कर वह उदार, दयालु, दीनवत्सल और कर्तव्यपरायण हो गये थे। लाला प्रभाशंकर की पुत्रियों के विवाह में उन्होने खासी मदद की थी और पुत्रो के मातम में शरीक होने के लिए भी गोरखपुर से आये थे। प्रेमशंकर के प्रति भी भ्रातृ-प्रेम जाग्रत हो गया था, यहाँ तक कि लखनपुरवालों के मुक्त हो जाने पर उन्हें बधाई दी थी। गायत्री की मृत्यु का शोक समाचार मिला तो उन्होने उसका संस्कार बड़ी धूमधाम से किया और कई हजार रुपये खर्च किये। उसकी यादगार में एक पक्का तालाब खुदवा दिया। जब तक वह फुस के झोपडे में रहते थे, आग की चिनगारियों से डरते थे। अब उनका पक्का महल था, फुलझडियों का तमाशा सावधानी से देख सकते थे।

ज्ञानशंकर अब ख्याति और सुकीर्ति के लिए लालायित रहते थे। लखनऊ के मान्यगण उन्हे अनधिकारी समझ कर उनसे कुछ खिचे रहते थे। और यद्यपि गोरखपुर मे पहले ही उन्होने सम्मानपद प्राप्त कर लिया था, पर इस नयी हैसियत में देख कर अक्सर लोग उनसे जलते थे। ज्ञानशंकर ने दोनो शहरो के रईसो में मेल-जोल बढ़ाना शुरू किया। पहले वह राय साहब के अव्यवस्थित व्यय को घटाना परमावश्यक समझते थे। कई घोड़े, एक मोटर, कई सवारी गाडियाँ निकाल देना चाहते थे। लेकिन अब उन्हें अपनी सम्मान रक्षा के लिए उस ठाट-बाट को निचाहना ही नहीं, उसे और बढ़ाना जरूरी मालूम होता था जिसमें लोग उनकी हँसी न उड़ाये। वह उन लोगों की बारबार दावते करते, छोटे-बड़े सबसे नम्रता और विनय का व्यवहार करते और सत्कार्यों के लिए दिल खोल कर चन्दे देते। पत्र-सम्पादको से उनका परिचय पहले ही से था अब और भी घनिष्ठ हो गया। अखबारो में उनकी उदारता और सज्जनता की प्रशंसा होने लगी। यहाँ तक कि साल भी न बीतने पाया था कि वह लखनऊ की ताल्लुकेदार सभा के मंत्री चुन लिये गये। राज्याधिकारियों में भी उनका सम्मान होने लगा। वह वाणी में कुशल थे ही, प्राय जातीय-सम्मेलन में ओजस्विनी बक्तूती देते। पत्रों में वाह-वाह होने लगती। अतएव वह इधर तो जाति के नेताओं में गिने जाने लगे, उघर अधिकारियों में भी मान-प्रतिष्ठा होने लगी।

किन्तु अपनी मूक, दीन प्रजा के साथ उनका बर्ताव इतना सदय न था। उन वृक्षो में काँटे न थे, इसलिए उनके फल तोड़ने में कोई बाधा न थी। असामियों पर अखराज, बकाया और इजाफे की नालिजें घूम से हो रही थी, उनके पट्टे बदले जा रहे थे और नजराने बड़ी कठोरता से वसूल किये जा रहे थे। राय साहब ने रियासत पर पाँच लाख का ऋण छोड़ा था। उस पर लगभग २५ हजार वार्षिक ब्याज होता था। ज्ञानशंकर ने इन प्रयत्नों से सूद की पूर्ति कर ली। इतने अत्याचार पर भी प्रजा उनसे असन्तुष्ट न थी। वह कडवी हवाएँ मीठी करके पिलाते थे। गायत्री की बरसी में उन्होने असामियों को एक हजार कम्बल बाँटे और ब्राह्मणों को भोज दिया। इसी तरह राय साहब के इलाके में होली के दिन जलसे कराये और भोले-भाले असामियों को भर