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प्रेमाश्रम

रही। यहाँ उसे कई महात्माओ के दर्शन हुए, लेकिन उसे उनके उपदेशो से शान्ति न मिली। वे सब दुनिया के बन्दे थे। पहले तो उससे बात तक न की; पर ज्यों हीं। मालूम हुआ कि यह रानी गायत्री है त्यों ही सब जान और वैराग्य के पुतले बन गये। गायत्री को विदित हो गया कि उनका त्याग केवल उद्योग-हीनता है और उनका भेष केवल सरल-हृदय भक्तों के लिए मायाजाल। वह निराश हो कर चौथे दिन हरिद्वार जा पहुँची, पर यहाँ धर्म का आडम्बर तो बहुत देखा, भाव कम। यात्री गण दूर-दूर से आये हुए थे, पर तीर्थ करने के लिए नही, केवल बिहार करने के लिए। आठो पहर गंगा तट पर विलास और आभूषण की बहार रहती थी। गायत्री खिन्न होकर तीसरे ही दिन यहाँ से हृषीकेश चली गयी। वहाँ उसने किसी को अपना परिचय न दिया। नित्य पहर रात रहे उठती और गंगा-स्नान करके दो-तीन घंटे गीता का पाठ किया करती। शेष समय धर्म ग्रंथो के पढ़ने में काटती। सन्ध्या को साधु-महात्माओं के ज्ञानोपदेश सुना करती। यद्यपि वहाँ दो-एक त्यागी आत्मा के दर्शन हुए, पर कोई ऐसा तत्त्वज्ञानी न मिली जो उसके चित्त को विरक्त कर है। इतना संयम और इंद्रियनिग्रह करने पर भी सांसारिक चिन्ताएँ उसे सताया करती थी। मालूम नही घर पर क्या हो रहा है? न जाने सदाव्रत चलता है या ज्ञानशंकर ने बन्द कर दिया? फर्श आदि की न जाने क्या दशा होगी? नौकर-चाकर चारो और लुट मचा रहे होंगे। मेरे दीवानसाने में मनों गर्द जम गयी होगी। अबकी अच्छी तरह मरम्मत न हुई होगी तो छतें कई जगह फट गयी होगी। मोटरें और बग्घियाँ रोज मांगी जाती होगी। जो ही आ कर दो-चार लल्लो-चप्पो की बातें करता होगा, लाला जी दे देते होगें। समझते होगे अब तो मैं मालिक हूँ। बगीचा बिलकुल जंगल हो गया होगा। ईश्वर जाने कोई चिड़ियों और जानवरो की सुधि लेता हैं या नहीं। बेचारे भूखों मर गये होगें। दोनों पहाड़ी मैने कितनी दौड़-धूप करने पर मिले थे। अब या तो मर गये होंगे या कोई माँग ले गया होगा। सन्दुको की कुजियां तो श्रद्धा को दे आयीं हैं, पर ज्ञानशंकर जैसे दुष्ट चरित्र आदमी से कोई बात बाहर नहीं। बहुधा धर्म-ग्रंथों के पढ़ने या मन्त्र जाप करते समय ये दुश्चिन्ताएँ उसे आ घेरती थी। जैसे टूटे हुए बर्तन में एक और से पानी भरो और दूसरी ओर से टपक जाता है उसी तरह गायत्री एक ओर तो आत्म-शुद्धि की क्रिया में तत्पर हो रही थी, पर दूसरी और चिन्ता यदि उसे घेरे रहती थी। वह शान्ति, वह एकाग्रता ने प्राप्त होती थीं जौ अल्मोत्कर्ष का मूल मन्त्र है। आश्चर्य तो यह है कि वह विघ्न-बाधाओं का स्वागत करती थी और उन्हें प्यार से हृदयागार में बैठाती थी। वह बनारस से यह ठान कर चली थी कि अब संसार से कोई नाता न रखूंगी, लेकिन अब उसे ज्ञात होता था कि आत्म-ज्ञान प्राप्त करने के लिए वैराग्य की जरूरत नहीं है। मैं अपने घर रह कर रियासत की देख-रेख करते हुए क्या निलिप्त नही रह सकती, पर इस विचार से उसका जी झुंझला पड़ता था। वह अपने को समझाती, अब उसे रियासत से क्या प्रयोजन है। बहुत भोग कर चुकी। अब मुझे मोक्ष मार्ग पर ही चलना चाहिए, यह जन्म तो बिगड़ ही गया, दूसरा जन्म क्यों बिगाड़े?