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प्रेमाश्रम

सम्मति का भी उल्लेख किया। डाक्टर इर्फान अली ने भी इस विषय पर कई प्रामाणिक गंथो का अवलोकन किया था। उनकी जिरहो ने प्रियनाथ की धारणा को और भी पुष्ट कर दिया। तीसरे दिन सरकारी वकील की जिरह शुरू हुई। उन्होने जब वैद्यक प्रश्नो से प्रियनाथ को काबू में आते न देखा तब उनकी नीयत पर आक्षेप करने लगे।

वकील-क्या यह सत्य है कि पहले जिस दिन अभियोग का फैसला सुनाया गया था उस दिन उपद्रवकारियों ने आपके बँगले पर जा कर आपको घेर लिया था?

प्रिय-जी हाँ।

वकील उस समय वाबू प्रेमशकर ने आपको मार-पीट से बचाया था?

प्रिय-- जी हाँ, वह न आते तो शायद मेरी जान न बचती।

वकील--यह भी सत्य है कि आपको बचाने में यह स्वयं जख्मी हो गये थे?

प्रिय- जी हाँ, उन्हें बहुत चोट आयी थी। कन्धे की हड्डी टूट गयी थी।

वकील-आप यह भी स्वीकार करेंगे कि वह दयालु प्रकृति के मनुष्य है और अभियुक्तो से उन्हें सहानुभूति है।

प्रिय जी हाँ, ऐसा ही है।

वकील—ऐसी दशा में यह स्वाभाविक है कि उन्होने आपको अभियुक्तों की रक्षा करने पर प्रेरित किया हो?

प्रिय मेरे और उनके बीच में इस विषय पर कभी बात-चीत भी नहीं हुई।

वकील-क्या संभव नहीं है कि उनके एहसान ने आपको ज्ञात रूप से बाधित किया हो।

प्रिय मैं अपने व्यक्तिगत भावों को अपने कर्त्तव्य से अलग रखता हूँ। यदि ऐसा होता तो सबसे पहले बाबू प्रेमशंकर ही अवहेलना करते।

वकील साहब एक पहलू से दूसरे पहलू पर आते थे, पर प्रियनाथ चालाक मछली की तरह चारा कुतर कर निकल जाते थे। दो दिन तक जिरह करने के बाद अन्त में हार कर बैठ रहे।

दारोगा खुर्शेद आलम का बयान शुरू हुआ। यह उनके पहले बयान की पुनरावृत्ति थी, पर दूसरे दिन इर्फान अली की जिरहो ने उनको बिलकुल उखाड़ दिया। बेचारे बहुत तड़फड़ाये पर जिरहन्जाल से न निकल सके।

इर्फान अली को अब अपनी सफलता का विश्वास हो गया। वह आज अदालत से निकले तो बाछे खिली जाती थी। इसके पहले भी बड़े-बड़े मुकदमों की पैरवी कर चुके थे और दोनो जैब नोटों से भरे हुए घर चले थे, पर चित्त कभी इतना प्रफुल्लित न हुआ था। प्रेमशंकर तो ऐसे खुश थे मानो लड़के का विवाह हो रहा हो।

इसके बाद तहसीलदार साहब का बयान हुआ। वह घंटों तक लखनपुरवा की उद्दडता और दुर्जनता का आल्हा गाते रहे, लेकिन इर्फान अली ने दस ही मिनट में उसका सारा ताना-बाना उधेड़ कर रख दिया।