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प्रेमाश्रम

के सत्संग का सौभाग्य प्राप्त हो गया और अब मुझे यह ज्ञात हो रहा है कि मेरा सारा जीवन नष्ट हो गया। मैंने योग का अभ्यास किया, शिव और शक्ति की आराधना की, अपनी आकर्षण-शक्ति को बढ़ाया यहां तक कि मेरी आत्मा विद्युत का भंडार हो गयी, पर इन सारी क्रियाओं का उद्देष्य केवल वासनाओं की तृप्ति थी। कभी-कभी भोग ने आनन्द में मग्न हो कर मैं समझता था यही आत्मिक शान्ति है, पर अब ज्ञात हो रहा है कि मैं भ्रमजाल में फँस हुआ था! उसी अज्ञान की दशा में अपने को आत्मज्ञानी समझता हुआ मैं सार में प्रस्थान कर जाता, लेकिन तुमने वैद्य की तलाश में घर से बाहर निकाला और देवयोग से शारीरिक रोगों के वैद्य की जगह मुझे आत्मिक रोगों का वैद्य मिल गया। मेरे हृदय से तुम्हारे कल्याण की प्रार्थना निकलती है; लेकिन याद रखो, मेरी शुभ कामनाओं में तुम्हारा जितना हित होगा उससे कहीं ज्यादा हित गायत्री की ठंडी साँसो से होगा। विद्या के आत्मघात ने उसे सचेत कर दिया है। ऐसी दशा में अन्य स्त्रियाँ प्रमन्न होती, लेकिन गायत्री की आत्मा सम्पूर्णत: निर्जीव नहीं हुई थी। उसने तुम्हारे मन्त्र को विफल कर दिया। तुम्हारा अन्तःकरण अद्र गायत्री के लिये बुला हुआ पृष्ठ हैं। तुम उसकी गापारिन से किसी तरह बच नहीं सकते। तुम्हें जल्द अपनी तृष्णाओं को साथ लिये ही संसार से जाना पड़ेगा। अतएव मुनासिब है कि तुम अपने जीवन के गिने-गिनाये दिन आत्म-शुद्धि में व्यतीत करो। तुम्हारे कल्याण का यही मार्ग है। मैं अपनी कुछ जायदाद मायाशंकर को देती हूँ। वह होनहार बालक हैं और कुल को उज्ज्वल करेगा। उनके वयस्कत्व तक तुम रियासत का प्रबंध करते रहो। मुझे अब उसने कोई प्रयोजन नही है।

यह पत्र पढ़कर ज्ञानशंकर के मन में हर्ष की जगह एक अव्यक्त शंका उत्पन्न हुई। वह भविष्यवाणी के कायल न थे, लेकिन ऐसे पुरुष के मुँह से अनिष्ट की बातें सुन कर जिसके त्याग ने उसके आत्मज्ञानी होने में कोई सन्देह न रखा हो उनका हृदय कातर हो गया। इस समय उनके जीवन की चि-सचित अभिलाषा पूरी हुई थीं। उन्हें स्वप्न में भी यह आशा न थी कि मैं इतनी जल्द रायसाहब की विपुल सम्पत्ति का स्वामी हो जाऊँगा। नहीं, वह उनकी और से निराश हो चुके थे। उन्हें विश्वास हो गया था कि राय साहब उसे दृस्ट के हवाले कर जायेंगे। यह सब शकाएँ मिथ्या निकली। लेकिन तिस पर भी इस पत्र है उन्हें वहीं दुश्शका हुई जो किसी स्त्री को अपनी दाई आँख फड़कने से होती है। उनकी दशा इस समय उस मनुष्य की सी थी जिसे डाकुओं की कैद में मिठाइयाँ खाने को मिलें। सुखें ठूँठे का कुसुमित होना किसे शिकित नहीं कर देगा? वह एक घंटे तक चिन्ता में डूबे रहे। इसके बाद वह कृष्णमन्दिर में गये और बड़े उत्ताह में जन्माष्टमी के उत्सव की तैयारियाँ करने लगे।

ज्ञानशंकर के जीवनाभिनय में अब से एक नये दृश्य का सूत्रपात हुआ, पहले से कहीं ज्यादा शुत्र, मंजू और मुत्तद। अभी दम मिनट पहले उनकी आशा-नौका मक्षधार में पड़ी चक्कर ला रही थी, पर देखते-देखते लहरे शान्त हो गयी। वायु अनुकूल